Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 90
________________ वाच्यार्थ के निर्धारण के सिद्धान्त नय और निक्षेप : ७७ निक्षेप सिद्धान्त जैन दर्शन में शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण करने के लिए दो प्रमुख सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं - १. नय-सिद्धान्त और २ निक्षेप-सिद्धान्त । नय की चर्चा हम कर चुके हैं, अब निक्षेप की चर्चा करेंगे । निक्षेप के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजय जी कहते हैं कि जिससे प्रकरण (सन्दर्भ) आदि के अनुसार अप्रतिपत्ति आदि का निराकरण होकर शब्द के वाच्यार्थ का यथास्थान विनियोग होता है, ऐसी रचना विशेष को निक्षेप कहते हैं । " लघीयस्त्रयी में भी निक्षेप की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि निक्षेप के द्वारा अप्रस्तुत अर्थ का निषेध और प्रस्तुत अर्थं का निरूपण होता है । वस्तुतः शब्द का प्रयोग वक्ता ने किस अर्थ में किया है इसका निर्धारण करना हो निक्षेप का कार्य है । हम राजा' नामधारी व्यक्ति, नाटक में राजा का अभिनय करने वाले व्यक्ति, भूतपूर्वं शासक और वर्तमान में राज्य के स्वामी सभी को 'राजा' कहते हैं । इसी प्रकार गाय नामक प्राणी भी गाय कहते हैं और उसकी आकृति के बने हुए खिलौने को भी गाय कहते हैं । अतः किस प्रसंग में शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है इसका निर्धारण करना आवश्यक है । निक्षेप हमें इस अर्थ निर्धारण का प्रक्रिया को समझाता है । पं० सुखलाल जी संघवी अपने तत्त्वार्थ सूत्र के विवेचन में लिखते हैं कि "समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है । भाषा शब्दों से बनती है। एक ही शब्द प्रयोजन या प्रसंग के अनुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ मिलते हैं । वे ही चार अर्थं उस शब्द के अर्थ - सामान्य के चार विभाग हैं । ये विभाग हो निक्षेप या न्यास कहलाते हैं । इनको जान लेने से वक्ता का तात्पर्य समझने में सरलता होती है" । ३ जैन आचार्यों ने चार प्रकार के निक्षेपों का उल्लेख किया है-: १. नाम २. स्थापना ३. द्रव्य और ४. भाव । नामनिक्षेप - व्युत्पत्तिसिद्ध एवं प्रकृत अर्थ की अपेक्षा न रखने वाला जो अर्थ माता-पिता या अन्य व्यक्तियों के द्वारा किसी वस्तु को दे दिया जाता वह नामनिक्षेप हैं । नामनिक्षेप में न तो शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ का विचार किया जाता है, न उसके लोक प्रचलित अर्थ का विचार किया जाता है, और न उस नाम के अनुरूप गुणों का ही विचार किया जाता है, अपितु मात्र किसी व्यक्ति या वस्तु को संकेतित करने के लिए उसका एक नाम रख दिया जाता है ।" उदाहरण के रूप में कुरूप व्यक्ति का नाम सुन्दरलाल रख दिया जाता । नाम देते समय अन्य अर्थों में प्रचलित शब्दों, जैसे सरस्वती, नारायण, विष्णु, इन्द्र, रवि आदि अथवा अन्य अर्थों में अप्रचलित शब्दों जैसे - डित्थ, रिंकू, पिंकू, मोनु, टोनु आदि से किसी व्यक्ति का नामकरण कर देते हैं और १. प्रकरणादिदिशेनाप्रतिपत्त्यादि व्यवच्छेदकयथास्थान विनियोगाय शब्दार्थ रचना विशेषा निक्षेपा: । — जैनतर्कभाषा, निक्षेप परिच्छेद पृ० ६३ - लघीयस्त्रयी ७।२ २. अप्रस्तुतार्थापकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निःक्षेप फलवान् ३. तत्त्वार्थ सूत्र (विवेचन पं० सुखलाल जी संघवी ) पृ० ६. ४. नामस्थापनाद्रव्यभावतन्त्यासः । ५. तत्र प्रकृतार्थंनिरपेक्षा नामर्थान्यतर परिणतिर्नाम निःक्षेपः । Jain Education International —तत्त्वार्थसूत्र १५ -- जैनतर्कभाषा, निक्षेप परिच्छेद पृ० ६८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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