Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 73
________________ ६०: जैन भाषादर्शन होती है। पद वाक्य के आवश्यक अंग हैं और वाक्य इनसे निर्मित एक निरपेक्ष इकाई है । वाक्य खण्डात्मक इकाईयों से निर्मित एक अखंड रचना है। वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत और उनकी समालोचना' वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय दार्शनिकों के दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने के लिए जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र ने अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में वाक्यपदीय से दो श्लोक उद्धृत किये हैं जिनमें उस काल में प्रचलित वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं का एक संक्षिप्त परिचय मिल जाता है-२ आख्यातशब्दः, संघातो जातिसंघातवर्तिनी । एकोऽनवयव शब्दः क्रमो बुद्धयनुसंहृतिः ।। पदमाद्यं, पृथक्सर्वपदं, साकांक्षमित्यपि। वाक्यं प्रति मतिभिन्ना बहुधा न्यायवादिनाम् ॥ -वाक्यपदीय २।१-२ २. भारतीय दार्शनिकों में वाक्य के स्वरूप को लेकर दो महत्वपूर्ण दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं । वैयाकरणिकों का मत है कि वाक्य एक अखंड इकाई है। वे वाक्य में पद को महत्वपूर्ण नहीं मानते हैं, उनके अनुसार वाक्य से पथक पद का कोई अस्तित्व ही नहीं है जबकि दसरा दष्टिको समर्थन न्याय, सांख्य, मीमांसा आदि दर्शन करते हैं, वाक्य को खण्डात्मक इकाईयों अर्थात् शब्दों और पदों से निर्मित मानता है। इन विचारकों के अनुसार पद वाक्य का एक महत्वपूर्ण अंग है और अपने आप में एक स्वतन्त्र इकाई है। यद्यपि इस प्रश्न को लेकर कि क्रियापद (आख्यात पद) अथवा उद्देश्य पद आदि में कौन सा पद वाक्य का प्राण है-इन विचारकों में भी मतभेद पाया जाता है। वाक्यपदीय के आधार पर प्रभाचन्द्र ने वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न मतों का उल्लेख कर उनकी समीक्षा की है। (१) आख्यात पद ही वाक्य है कुछ दार्शनिकों के अनुसार आख्यात पद या क्रियापद ही वाक्य का प्राण है। वही वाक्य का अर्थ वहन करने में समर्थ है। क्रिया पद के अभाव में वाक्यार्थ स्पष्ट नहीं होता अतः वाक्यार्थ के अवबोध में क्रिया पद अथवा आख्यात पद हो प्रधान है, अन्य पद गौण है। __ इस मत की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि आख्यातपद अर्थात् क्रियापद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है या सापेक्ष होकर वाक्य है ? यदि प्रथम विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि आख्यात पद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है तो यह मान्यता दो दृष्टिकोणों से युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि प्रथम तो अन्य पदों से निरपेक्ष होने पर आख्यात पद न तो "पद" ही रहेगा और न "वाक्य" के स्वरूप को प्राप्त होगा। दूसरे यदि अन्य पदों से निरपे आख्यात पद १. विस्तृत विवेचन एवं मूल सन्दर्भ के लिए देखें (अ) प्रमेयकमलमार्तण्ड पु० ४५८ से ४६५ । (ब) स्याद्वादरलाकर पृ० ६४१ से ६४७ । (स) भाषातत्त्व एवं वाक्यपदीय १०८५ से ९६ ।। २. प्रमेयकमलमार्तण्ड के ४५९ पर उद्धृत वाक्यपदीय के ये दो श्लोक अशुद्ध है-हमने उन्हें शुद्ध करके दिया है। उसमें दूसरे श्लोक के प्रथम चरण में 'पदमाद्यं पदं चान्त्यं' ऐसा पाठ है जबकि अन्यत्र 'पदमाद्य पृथक्सर्वपदं' ऐसा पाठ मिलता है जो कि अधिक शुद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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