Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 81
________________ ६८ : जेन भाषादर्शन अभिहितान्वयवाद की समीक्षा' जैन तार्किक प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में कुमारिल भट्ट के अभिहतान्वयवाद की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि यदि वाक्य को सुनकर प्रथम परस्पर असम्बन्धित या अनन्वित पदार्थों का बोध होता है और फिर उनका पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय ज्ञात होता है तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उनका यह अन्वय (सम्बद्धीकरण) किस आधार पर होता है ? क्या वाक्य से बाह्य किन्हीं अन्य शब्दों / पदों के द्वारा इनका अन्वय या पारस्परिक सम्बन्ध ज्ञात होता है या बुद्धि (ज्ञान) के द्वारा इनका अन्वय ज्ञात होता है ? प्रथम विकल्प मान्य नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण पदों के अर्थों को विषय करने वाला ऐसा कोई अन्वय का निमित्तभूत अन्य शब्द हो नहीं है । पुनः जो शब्द / पद वाक्य में अनुपस्थित उनके द्वारा वाक्यस्थ पदों का अन्वय नहीं हो सकता है । यदि दूसरे विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि ये बुद्धि के द्वारा अन्वित होते हैं या बुद्धितत्त्व इनमें अन्वय / सम्बन्ध देखता है तो इससे कुमारिल का अभिहितान्वयवाद का सिद्ध न होकर उसका विरोधी सिद्धान्त - अन्विताभिधानवाद - ही सिद्ध होता है । क्योंकि पदों को परस्पर अन्वितरूप में देखने वाली बुद्धि तो स्वयं ही भाव-वाक्य रूप है । यद्यपि कुमारिल की ओर से यह कहा जा सकता है कि चाहे वाक्य परस्पर अन्वित पदों से भिन्न नहीं हो, क्योंकि वह उन्हीं से निर्मित होता है, किन्तु उसके अर्थ का बोध तो उन अनन्वित पदों के अर्थ के बोध पर ही निर्भर करता है, जो सापेक्ष बुद्धि में परस्पर सम्बन्धित या अन्वित प्रतीत होते हैं। इसके प्रत्युत्तर में जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र का तर्क यह है कि पद अपने धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय आदि से भिन्न नहीं है, क्योंकि जब भी वे कहे जाते हैं तब अपने अवयवों सहित कहे जाते हैं और उनके अर्थ का बोध उनके परस्पर अन्वित अवयवों के बोध से होता है, अर्थात् चाहे वाक्य का हो या पद का हो, हमें जो भी बोध होता है, वह अन्वितों का ही होता है, अनन्वितों का नहीं होता है । यद्यपि अपने अभिहितान्वयवाद के समर्थन हेतु कुमारिल यह तर्क भी दे सकते हैं कि लोक व्यवहार एवं वेदों में वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति के लिए निरंश शब्द / पद का प्रयोग होता है, धातु, लिंग, विभक्ति या प्रत्यय का पृथक प्रयोग नहीं होता है, धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय आदि तो उनकी व्युत्पत्ति समझाने के लिए उनसे पृथक् किये जाते हैं । एक शब्द एक वर्ण के समान अनवयव (निरंश) होता है, उसके अर्थ को समझने के लिए कल्पना के द्वारा उसके अवयवों को एक दूसरे से पृथक् किया जाता है। वह तो अपने में निरंश होने के कारण अनन्वित ही होता है, अन्वय तो किया जाता है । कुमारिल के इस तर्क के विरुद्ध प्रभाचन्द्र का कहना है कि जिस आधार पर शब्द को अपने अर्थबोध के लिए एक निरंश / अखण्ड इकाई माना जा सकता है उसी आधार पर वाक्य को भी एक निरंश अखण्ड इकाई माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि वाक्य की संरचना को स्पष्ट करने के लिए शब्दों को ( कल्पना में) पृथक किया जाता है वस्तुतः वाक्य अखण्ड इकाई है अतः उसमें अन्वितों का ही अभिधान होता है । लोक व्यवहार में एवं वेदों में वाक्यों का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि पदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति के लिए क्रिया की जा सके । वाक्यार्थ ही क्रिया का प्रेरक होता है, पदार्थ नहीं । अतः वाक्य को एक इकाई मानना होगा और इस रूप में वह अन्वित पदों का ही अभिधान करेगा । इस प्रकार प्रभाचन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस प्रकार शब्द / पद से धातु, लिंग, १. प्रमेयकमलमार्तण्ड ( प्रभाचन्द्र ) पृ० ४६४-६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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