Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 76
________________ जैन वाक्यदर्शन: ६३ और कथंचित् अभिन्न रहकर ही वाक्यार्थ का अवबोध करा सकता है क्योंकि सामान्य तत्त्व या जाति को व्यक्ति (अंश) से न तो पूर्णतः भिन्न माना जा सकता है और न पूर्णतः अभिन्न ही । पद भी वाक्य से न तो सर्वथा भिन्न होते हैं और न सर्वथा अभिन्न हो । उनकी सापेक्षिक भिन्नाभिन्नता ही वाक्यार्थ की बोधक बनती है । (४) वाक्य अखण्ड इकाई है वैयाकरणिक वाक्य को एक अखण्ड सत्ता मानते हैं । उनके अनुसार वाक्य अपने आप में एक इकाई है और वाक्य से पृथक् पद का कोई अस्तित्व ही नहीं है । जिस प्रकार पद के बनाने - वाले वर्णों में पदार्थ को खोजना व्यर्थ है उसी प्रकार वाक्य को बनाने वाले पदों में वाक्यार्थं का खोजना व्यर्थ है । वस्तुतः एकत्व में ही वाक्यार्थ का बोध होता है । इस मत के अनुसार वाक्य में पद और वर्ण का विभाजन समीचीन नहीं है । वाक्य जिस अर्थं का द्योतक है, वह अर्थ पद या पद- समूह में नहीं है । वाक्य को एक इकाई मानने में जैन आचार्यों को भी कोई विरोध नहीं है क्योंकि वे स्वयं वाक्य को सापेक्ष पदों की एक निरपेक्ष इकाई मानते हैं । उनका कहना केवल इतना ही है कि वाक्य को एक अखण्ड सत्ता या निरपेक्ष इकाई मानते हुए भी हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि उसकी रचना में पदों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । अंश से पूर्णतया पृथक् अंशी की कल्पना जिस प्रकार समुचित नहीं - उसी प्रकार पदों को पूर्ण उपेक्षा करके वाक्यार्थ का बोध सम्भव नहीं है । वाक्य निरपेक्ष इकाई होते हुए भी सापेक्ष पद समूह से ही निर्मित है । अतः वे भी वाक्य के महत्वपूर्ण घटक हैं, अतः अर्थबोध में उन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता है । प्रभाचन्द्र वाक्य के इस अखण्डता सिद्धान्त को समालोचना करते हुए कहते हैं कि वाक्य एक अविभाज्य एवं अपद इकाई है, यह मान्यता एक प्रकार की कपोल कल्पना ही है क्योंकि पद के बिना वाक्य नहीं होता है, वाक्य में साकांक्ष पदों का होना नितान्त आवश्यक है । वाक्य में पदों की पूर्ण अवहेलना करना या यह मानना कि पद और पदार्थ का वाक्य में कोई स्थान ही नहीं है, एक प्रकार से आनुभविक सत्य से विमुख होना ही है । प्रभाचन्द्र ने इस मत के सम्बन्ध में वे सभी आपत्तियाँ उठाई हैं जो कि स्फोटवाद के सम्बन्ध में उठायी जा सकती हैं । यह मत वस्तुत: स्फोटवाद का ही एक रूप है जो वाक्यार्थ के सम्बन्ध में यह प्रतिपादित करता है कि पद या उनसे निर्मित वाक्य अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं, किन्तु स्फोट ( अर्थ का प्राकाट्य) ही अर्थ का प्रतिपादक है । शब्दार्थ के बोध के सम्बन्ध में स्फोटवाद एक मात्र और अन्तिम सिद्धान्त नहीं है क्योंकि यह इसका उत्तर नहीं दे पाता है कि पदाभाव में अर्थ का स्फोट क्यों नहीं हो जाता ? अतः वाक्य को अखण्ड और अनवयव नहीं माना जा सकता। क्योंकि पद वाक्य के अपरिहार्य घटक हैं और वे शब्द रूप में वाक्य से स्वतन्त्र होकर भी अपना अर्थ रखते हैं, पुनः पदों के अभाव में वाक्य नहीं होता है। अतः वाक्य को अनवयव नहीं कहा जा सकता । (५) क्रमवाद एवं उसकी समीक्षा क्रमवाद भी संघातवाद का ही एक विशेष रूप है । उस मत के अनुसार पद को वाक्य का अपरिहार्य अंश तो माना गया है किन्तु पदों की सहस्थिति की अपेक्षा पदों के क्रम को वाक्यार्थ के लिए अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। क्रम ही वास्तविक वाक्य है। जिस प्रकार वर्ण यदि एक सुनिश्चित क्रम में नहीं हों तो उनसे पद नहीं बनता है, उसी प्रकार यदि पद भी निश्चित क्रम में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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