Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 54
________________ जैन शब्ददर्शन : ४१ वस्तुतः किसी भी पद का वाक्य में उसका क्या स्थान है इसका निर्धारण विभक्ति करती है। अतः भाषा की दृष्टि से विभक्तियों को उपयोगिता निर्विवाद है। नवविधनाम-अनुयोगद्वारसूत्र में नवविध नाम की चर्चा करते हुए मुख्यतः नव रसों की चर्चा की गयी है । साहित्य को दृष्टि से रस एक महत्वपूर्ण तत्त्व है। अनुयोगद्वारसूत्र में वीर, शृंगार, अद्भुत, रोद्र, ब्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त-इन नव रसों का वर्णन है। यद्यपि नव रसों का नामकरण की प्रक्रिया से क्या सम्बन्ध है यह कह पाना कठिन है।। भाषादर्शन की दृष्टि से हमें षड्विधनाम सप्तविधनाम और नवविधनाम महत्त्वपूर्ण नहीं लगते हैं । यद्यपि कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से षड्विधनाम, संगीतशास्त्र की दृष्टि से सप्तविधनाम और साहित्यशास्त्र को दृष्टि से नवविधनाम महत्त्वपूर्ण हैं किन्तु इनका सीधा सम्बन्ध भाषादर्शन से नहीं है । अष्टविधनाम में आठ विभक्तियों का जो विवेचन उपलब्ध है वह निश्चय ही भाषादर्शन से सम्बन्धित है । अनुयोगद्वारसूत्र में वर्णित दशविधनाम निश्चय ही भाषादर्शन और नामकरण की प्रक्रिया से महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध रखते हैं। अतः यहाँ उनकी थोड़ी विस्तारपूर्वक चर्चा करना अपेक्षित है। वशविधनाम-अनुयोगद्वारसूत्र' एवं धवला' में निम्न दस प्रकार के पदों (नामों) का उल्लेख मिलता है । क्रम को छोड़कर दोनों में कोई अन्तर नहीं है। वस्तुतः यह वर्गीकरण पदों के नामकरण (Naming) की प्रक्रिया को समझने के लिए है जिससे उनके सम्यक् अर्थ को समझा जा सके। १. गोण्यपद नाम-गौण्य गुणों के भाव को कहते हैं। वस्तु के या वाच्यविषय के गुणों के आधार पर जो उन्हें गणनिष्पन्न नाम दिया जाता है उसे गौण्यपदनाम कहते हैं। जैसे-भास्वरता के गुण की अपेक्षा सूर्य को भास्कर कहना, किसी धनाढ्य व्यक्ति को लक्ष्मीपति कहना अथवा श्रम करने वाले को श्रमिक कहना। २. नोगौण्यपद नाम-जिन पदों या नामों में गुण की अपेक्षा न हों अर्थात् जो नाम गुणनिष्पन्न न हों, ऐसे नामों (पदों) को नोगौण्यपद कहते हैं । जैसे—किसी कुरूप स्त्री का सुन्दरी नाम हो अथवा किसी निर्धन का लक्ष्मीपति नाम हो । नोगोण्यपद गुणविरुद्ध नाम है। ३. आदानपद नाम-विशेषणों से युक्त नाम आदानपद नाम कहे जाते हैं। जैसे—पूर्णकलश । आदानपद नाम में वस्तु को अपने अर्थबोध के लिए अन्यपद की अपेक्षा रहती है। ४. प्रतिपक्षपद नाम-जहाँ अन्य द्रव्य (वस्तु) या गुण के अभाव को ग्रहणकर कोई नामकरण दिया जाता है उसे प्रतिपक्षपद नाम कहते हैं । जैसे-वन्ध्या, यह नाम पुत्र के अभाव के कारण दिया जाता है अथवा असती, यह नाम सतीत्वगुण के अभाव के कारण होता है। ५. अनादिसिद्धान्तपद नाम-परम्परागत रूप से चले आये विशिष्ट अर्थ में रूढ़ पदों को अनादिसिद्धान्तपद नाम कहते हैं। जैसे-ब्रह्म, स्याद्वाद, धर्मास्तिकाय आदि । अनेक सन्दर्भो में ये अपने निरुतार्थ से भिन्न अर्थ भी रखते हैं। १. अनुयोगद्वारसूत्र-नामपद । २. (अ)जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग ३ पृ० ४। (ब) धवला ९।४, १,४५।१३५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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