Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 64
________________ जैन शब्ददर्शन : ५१ अतः जो एक नित्य अखण्ड स्फोट अर्थ की प्रतिपत्ति में हेतु है, वर्णध्वनि उसको व्यक्त करके नष्ट हो जाती है । स्फोटवाद का खण्डन (१) स्फोटवाद के खण्डन में जैन आचार्य प्रभाचन्द्र का कहना है कि यदि पूर्व वर्णों के संस्कारों से सहकृत अन्तिम वर्ण पदके वाच्यार्थ का ज्ञान कराता है तो फिर स्फोट की कल्पना व्यर्थ है क्योंकि स्फोट के अभाव में भी अर्थ की प्रतिपत्ति हो सकती है। इसके लिए स्फोट की कल्पना आवश्यक नहीं लगती । जब दृष्ट कारण से ही अर्थात् पूर्व वर्णों के संस्कार की स्मृति तथा अन्तिम वर्ण के श्रवण से कार्य अर्थात् अर्थबोध हो सकता है तो फिर अदृष्ट कारणान्तर के रूप में स्फोट की कल्पना करना बुद्धियुक्त नहीं है । (२) पुनः यदि समष्टि या व्यष्टि रूप में वर्ण अर्थ का ज्ञान कराने में असमर्थ है तो फिर वे स्फोट को भी अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं माने जा सकते । पुनः यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि वर्णों के द्वारा उत्पन्न होनेवाला यह संस्कार स्वयं स्फोट है या स्फोट का एक धर्म है । यदि वर्णों के संस्कारों का ही नाम स्फोट है तो फिर स्फोट को वर्णों से उत्पन्न हुआ मानना होगा और ऐसी स्थिति में वह नित्य नहीं होगा । यदि यह संस्कार स्वयं स्फोट रूप न होकर स्फोट का ही धर्म है तो फिर प्रश्न यह उठता कि वह स्फोट से भिन्न है अथवा अभिन्न । यदि हम संस्कारों को स्फोट का धर्म मानकर स्फोट से अभिन्न मानते हैं तो वर्णों के द्वारा उस धर्म की उत्पत्ति को स्फोट की ही उत्पत्ति माननी होगी और ऐसी स्थिति में स्फोट अनित्य हो जायेगा । यदि संस्कारों से उत्पन्न वह धर्म स्फोट से भिन्न है तो उनका पारस्परिक सम्बन्ध नहीं बन सकेगा और ऐसी स्थिति में वर्ण ध्वनि से स्फोट की अभिव्यक्ति मानना संभव नहीं होगा । पुनः अभिन्न होने की दशा में यदि वर्ण ध्वनि अर्थं का ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकती तो फिर स्फोट भी अर्थ का ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता है। पुनः स्फोट का सद्भाव भी किसी आधार पर सिद्ध नहीं होता है । चेतन सत्ता के सिवाय अन्य किसी तत्व में वाच्यार्थ के प्रकाशन की सामर्थ्य नहीं है । यदि चिदात्मा को ही स्फोट कहें तो उसमें जैनों को भी कोई आपत्ति नहीं क्योंकि जिसमें अर्थ स्फुट अर्थात् प्रकटित होता है उसे स्फोट कहते हैं । पुनः चिदात्मा के सिवाय स्फोट नाम के किसी स्वतन्त्र तत्त्व का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है; अतः शब्द में ही वाच्यार्थ को स्पष्ट करने की सामर्थ्य मान लेना चाहिए। वाच्यार्थ के स्पष्टीकरण के लिए अन्य किसी स्फोट नामक स्वतन्त्र तत्त्व को मानना आवश्यक नहीं है । न केवल जैन अपितु मीमांसक और नैयायिक भी स्फोटवाद के सिद्धान्त की आलोचना करते हैं । कुमारिल ने स्फोटवाद का खण्डन करके वर्णवाद की स्थापना की है। शब्द वर्णों की संहति है और वे ही अर्थाकार को प्रकट करते हैं । शब्दध्वनि में पूर्व - पूर्व वर्णों की ध्वनि को निरर्थक नहीं माना जा सकता है। वस्तुतः वर्णों के संस्कार हो समष्टि रूप से शब्द के वाच्यार्थ का ज्ञान कराते हैं । अतः स्वतन्त्र रूप से शब्दाकार अर्थात् स्फोट को मानना आवश्यक नहीं है। जैनों की भी यह मान्यता है कि सापेक्ष वर्णों की संहति से पद और सापेक्ष पदों की संहति से वाक्य बनता है जो स्वतः ही अपने वाच्यार्थ को स्पष्ट कर देता है। अतः स्फोट वर्ण या पद संस्कारों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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