Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 65
________________ ५२ : जैन भाषादर्शन अपोहवाद और उसका खण्डन' बौद्धों का पूर्वपक्ष . शब्द का वाच्यार्थ क्या है-यह प्रश्न भारतीय दार्शनिकों के लिए विवादास्पद रहा है । बौद्ध दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में अपोहवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । अपोह का तात्पर्य अतद्-व्यावृत्ति या अन्य-व्यावृत्ति है ! शब्द के वाच्यार्थ को अन्य शब्दों के वाच्यार्थ से पृथक करना अर्थात् अन्यापोह ही अपोह है । अपने वाच्यार्थ का अन्य वाच्यार्थों से पृथकीकरण ही शब्द की अपोहात्मकता है, उदाहरण के लिए 'गाय' शब्द यह बताता है कि उसका वाच्यार्थ महिष, अश्व, पुरुष आदि नहीं हैं । इस प्रकार शब्द का कार्य अपने अर्थ से भिन्न अन्य-अर्थों का निषेध करना है। बौद्धों के अनुसार शब्द का वाच्यार्थ न तो व्यक्ति है और न जाति; क्योंकि उनके अनुसार ऐसी कोई यथार्थ (Real) वस्तु ही नहीं है, जिसमें शब्द का संकेत ग्रहण हो सके। स्वलक्षण वस्तु मात्र क्षणजीवी हैं और द्रव्य. नाम. जाति आदि केवल भाषागत व्यवहार हैं, यथार्थ वस्तुएँ नहीं हैं । शब्द और शब्द का वाच्यार्थ केवल विकल्प या कल्पना है। उनकी मान्यता है कि शब्द से विकल्प और विकल्प से शब्द जन्म लेते हैं। उनके अनुसार व्यावहारिक जगत् को यथार्थ मानने का मुख्य आधार भाषा ही है; क्योंकि भाषायो व्यवहार में शब्द को बाह्यवस्तु जगत् का संकेतक माना जाता है । शब्द विकल्प के सहचारी होने के कारण व्यवहार में उपयोगी होते हैं किन्तु उनका अर्थ वास्तविक न होकर काल्पनिक ही होता है। यदि वस्तु क्षणिक और स्वलक्षण अर्थात् अद्वितीय स्वभाव से यक्त है तो शब्द उनका संकेतक नहीं हो सकता; क्योंकि संकेत ग्रहण करने के काल में वह ही नहीं रहेगी। अतः शब्द का वाच्यार्थ क्षणजीवी विशेष नहीं हो सकता । यद्यपि शब्द का वाच्यार्थ सामान्य हो सकता है किन्तु सामान्य की कोई वास्तविक सत्ता ही नहीं है । शब्द से प्रतिपाद्य अर्थ न तो विशेषात्मक हो सकता है और न सामान्यात्मक। क्षणजीवी विशेष में संकेत ग्रहण संभव नहीं हैं और सामान्य अभिलाप्य होकर भी वास्तविक नहीं होता। सामान्य को वास्तविक मानने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। प्रथमतः तो वह खर-विषाण (खरगोश के सींग) के समान असत् है और असत् होने से उसमें अर्थक्रियाकारी शक्ति भी नहीं है। बौद्धों के अनुसार अनेक गायों में अनुस्यूत एक नित्य और निरंश गोत्व अयथार्थ है; क्योंकि विभिन्न देशों (स्थानों) और विभिन्न कालों में स्थित व्यक्तियों अर्थात् गायों में एक साथ एक ही गोत्व का पाया जाना अनुभव से विरुद्ध है । जिस प्रकार छात्रसंघ का छात्रों से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है, वह एक प्रकार की कल्पना है और सम्बन्धित व्यक्तियों की बुद्धि का विकल्प है उसी तरह गोत्व, मनुष्यत्व आदि भी बुद्धि विकल्प या कल्पना प्रसूत हैं, बाह्य सत् वस्तुएँ नहीं हैं । बौद्धों के अनुसार यह विकल्पित सामान्य ही शब्द का वाच्य है और यह अन्यापोहात्मक या अतद्-व्यावृत्ति रूप है। अतः शब्द अर्थ (बाह्य वस्तु) का १. विस्तृत विवेचन के लिए देखें--(अ) अपोह सिद्धि (रत्नकीति)-अनुवाद गोविन्द चन्द्र पाण्डेय । (ब) प्रमेयकमलमार्तण्ड-(महेन्द्र कुमार), पृ० ४३१-४५१ । (स) न्यायकुमुदचन्द्र-(महेन्द्र कुमार), भाग २ पृ० ५६१-५६६ । (द) जैनदर्शन-महेन्द्र कुमार, पृ० २७४-२८१ । । (इ) जैन न्याय-५० कैलाश चन्द्र जी, पृ० २४३-२४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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