Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 66
________________ जैन शब्ददर्शन : ५३ वाचक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियग्राह्य अर्थ (बाह्यवस्तु) भिन्न है और शब्द गोचर अर्थ (तात्पर्य - meaning) भिन्न है। क्योंकि अन्धा व्यक्ति बाह्य अर्थ (वस्तु) को देख नहीं पाता है किन्तु वह शब्द से उसके अर्थ (तात्पर्य = meaning) को जान लेता है । पुनः अग्नि का स्पर्श होने से जिस तरह के दाह, का अनुभव होता है वह दाह, और दाह शब्द को सुनकर जिस तरह का अर्थबोध होता है वह दाह, अलग-अलग है। अतः शब्द का वाच्य इन्द्रियग्राह्य अर्थ (बाह्यवस्तु नहीं है। पुनः यह शब्द इस अर्थ या वस्तु विशेष का वाचक है-इस प्रकार का कथन भी क्षण-जीवी स्वलक्षण युक्त विशेष में संभव नहीं है, क्योंकि संकेत ग्रहण काल तक तो वह नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार 'गो' शब्द का 'अश्व' अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है और इसलिए 'गो' शब्द 'अश्व' अर्थ (वस्तु) का ज्ञान कराने में असमर्थ है। उसी प्रकार स्वलक्षण युक्त बाह्य अर्थ (वस्तु) के साथ भी शब्द का कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः क्षणजीवी स्वलक्षण युक्त विशेष अर्थ शब्द का विषय नहीं हो सकता। अतः बौद्धों के अनुसार शब्द न सामान्य के वाचक हैं और न विशेष के; वे केवल अतद्-व्यावृत्ति के द्वारा विकल्पित विषय को ही सूचित करते हैं; बाह्य वस्तु को नहीं; यही उनका अपोहवाद है। ___ अपोहवाद की समालोचना प्रमेयकमलमार्तण्ड में जैनों ने बौद्धों के इस अपोह सिद्धान्त का खण्डन विविध आधारों पर किया है : (१) बौद्धों के अपोहवाद के सन्दर्भ में जैनों का प्रथम आक्षेप यह है कि शब्द का विषय केवल विकल्पित सामान्य नहीं अपित यथार्थ सामान्य है। यह सत्य है कि व्यक्तियों से सामान्य को सत्ता नहीं है, सामान्य व्यक्तिनिष्ठ है किन्तु फिर भी वह यथार्थ है, काल्पनिक नहीं। जैनों के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। प्रत्येक वस्तु के कुछ धर्म अन्य वस्तुओं के सदृश होते हैं और कुछ विदृश । इन सदृश धर्मों को ही जैनों ने सामान्य माना है । वे यह मानते हैं कि सामान्य अनेकानुगत न होकर प्रत्येक व्यक्तिनिष्ठ है। दूसरे शब्दों में सामान्य नाम का कोई एक तत्व नहीं है जो कि सभी व्यक्तियों में अनुस्यूत है, अपितु व्यक्तियों के अलग-अलग सदृश गुण धर्म ही सामान्य हैं जो कि प्रत्येक व्यक्ति में उपस्थित रहकर उसे एक वर्ग या जाति को सदस्य बनाते हैं। सादश्यता व्यक्ति का धर्म है और व्यक्ति के धर्म के रूप में वह यथार्थ है। जिस तरह प्रत्यक्ष आदि प्रमाण का विषय जात्यन्वित व्यक्ति या सामान्यविशेषात्मक वस्तु होती है उसी तरह शब्द का विषय भी सामान्य विशेषात्मक यथार्थ वस्तु ही है, विकल्पित वस्तु नहीं । मीमांसकों के अनुसार यदि शब्द से केवल सामान्य में और बौद्धों के अनुसार विकल्पित सामान्य में ही संकेत ग्रहण माना जाये तो शब्द को सुनकर विशेष व्यक्तियों में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। 'गाय' शब्द सुनकर हम 'गाय' विशेष को ही खोजते हैं किसी सामान्य अर्थात् गोत्व को नहीं खोजते हैं। अतः शब्द जात्यन्वित यथार्थ वस्तु का संकेतक है, विकल्पित सामान्य का नहीं । (२) यदि शब्द का वाच्यार्थ विकल्पित वस्तु है तो ऐसी स्थिति में कथन की सत्यता और असत्यता का निर्धारण संभव ही न होगा क्योंकि कथन की सत्यता और असत्यता का आधार उसके. वाच्यार्थ की यथार्थ आनुभविक जगत् में प्राप्ति और अप्राप्ति हो है। जिस कथन के अनुरूप बाह्य जगत् में वस्तु उपलब्ध हो वह सत्य माना जाता हैं और जिस कथन के अनुरूप बाह्यार्थ प्राप्त न हो वह मिथ्या माना जाता है। बौद्धों के अनुसार ज्ञान की प्रामाणिकता का आधार उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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