Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 58
________________ जैन शब्ददर्शन : ४५ किसी व्यक्ति की सत्ता । मनष्यत्व मनुष्यों से पथक नहीं देखा जा सकता और न कोई ऐसा मनुष्य ही होता है जो मनुष्यत्व से रहित हो । सत्ता या अस्तित्व सामान्य-विशेषात्मक है और यदि शब्द का वाच्यार्थ आनुभविक तथ्य है, तो हमें यह मानना होगा कि शब्द एकान्तरूप से न तो सामान्य का बोधक है और न विशेष का अपितु सामान्य-विशिष्ट-विशेष का । जैन आचार्यों ने मीमांसकों के इस सिद्धान्त का कि 'शब्द केवल सामान्य का संकेतक एवं ग्राहक है', खण्डन करते हुए कहा है कि संकेत के अनुसार ही शब्द वाचक होता है और संकेत सामान्य-विशिष्ट-विशेष में ही सम्भव है। केवल सामान्य अथवा जाति अर्थ क्रिया में उपयोगी नहीं है अपितु सामान्य विशिष्ट घट आदि वस्तुएं ही कार्यकारी होती हैं। गोत्वनामक सामान्य से न तो दुग्ध की उपलब्धि होती है और न घटत्व से जल-धारण का कार्य सिद्ध होता है। शब्द जिसका संकेत करता है वह सामान्यवान् या जात्यान्वित विशेष ही है। यद्यपि जैन दार्शनिक और नैयायिक दोनों ही शब्द का वाच्य सामान्य-विशिष्ट-विशेष को मानते हैं फिर भी जैन दार्शनिक नैयायिकों की इस बात को स्वीकार नहीं करते कि शब्द पहले जाति को ग्रहण कर फिर व्यक्ति को ग्रहण करता है। नैयायिकों को यह अवधारणा तभी सत्य हो सकती है जबकि जाति और व्यक्ति की विविक्त या भिन्न-भिन्न सत्ताएँ होती या उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध होता। जब सामान्य और विशेष एक ही वस्तु में अन्वित है तो शब्द पहले जाति का ग्रहण कर फिर व्यक्ति को ग्रहण करता है-यह मानना समुचित नहीं। क्योंकि अनुभव में ऐसा कोई क्रम नहीं देखा जाता । यदि हम जाति को विशेषण और व्यक्ति के विशेष्य मानें तो दोनों अभिन्न या अविविक्त ही सिद्ध होते हैं और शब्द इस अविविक्त वाच्यार्थ का बोध एक ही साथ कराता है, अलग-अलग नहीं। 'गाय को लाओ' इस शब्द प्रयोग को सुनकर श्रोता गोत्वान्वित गाय विशेष को ही खोजता है, वह गोत्व को नहीं खोजता। शब्द-संकेत से एक ही साथ विशेष्य और विशेषण का ग्रहण होता है। मोमांसकों का यह कहना भी युक्ति संगत नहीं है कि 'गो' शब्द के सुनने से काली, सफेद आदि विशेषणों से युक्त विशेष की प्रतीति नहीं होती है, अतः शब्द का वाच्यार्थ विशेष नहीं है। चाहे 'गो' शब्द सुनकर काली, सफेद आदि 'गाय' का अर्थबोध न हो, किन्तु गलकम्बल तथा कुकुद वाले प्राणी विशेष की प्रतीति तो होती ही है। __मीमांसकों का यह मानना भी उचित नहीं है कि विशेष (व्यक्ति) के साथ सामान्य का कार्य-कारण सम्बन्ध (प्रभाकर) अथवा स्वाभाविक (भाट्ट) सम्बन्ध है, अतः शब्द के वाच्य सामान्य (जाति) से लक्षणा के द्वारा विशेष (व्यक्ति) की प्रतीति हो जाती है। चाहे जाति औ कार्य-कारण माना जाये या उनमें स्वाभाविक सम्बन्ध माना जाये शब्द संकेत काल में तो जाति और व्यक्ति में तादात्म्य ही प्रतीत होता है। अतः शब्द का वाच्यार्थ सामान्य-विशिष्ट-विशेष ही मानना चाहिए।' . वस्तुतः शब्द सामान्य का ग्राहक है या विशेष का अथवा सामान्य-विशिष्ट-विशेष का ग्राहक है-यह विवाद विभिन्न दार्शनिकों की अपनी तत्वमीमांसीय अवधारणाओं के आधार पर आया है । अनुभव के क्षेत्र में तो हमें सदैव ही सामान्य-विशिष्ट-विशेष की ही अनुभूति होती है और इस१. (अ) न्यायकमदचन्द्र, प० ५६८ । (ब) जैनन्याय, पृ० २४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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