Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 42
________________ जैन शब्ददर्शन : २९ प्रथमतः प्रयत्नजन्यता की दृष्टि से शब्दों के प्रायोगिक और वैनसिक ऐसे दो विभाग भी किये हैं । प्रायोगिक शब्द वे हैं, जिनकी ध्वनि जीव के प्रयत्नों से उत्पन्न होती हैं जबकि वैनसिक शब्द वे हैं, जिनकी ध्वनि जड़ वस्तुओं के पारस्परिक संघर्ष से उत्पन्न होती हैं। वैस्रसिक शब्द अनिवार्यतः अभाषात्मक होते हैं जबकि प्रायोगिक शब्द भाषात्मक एवं अभाषात्मक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। भाषात्मक प्रायोगिक शब्द भी अक्षरात्मक एवं अनक्षरात्मक के भेद से दो प्रकार के माने गये हैं। इनमें जो ध्वनि वर्णों या अक्षरों से युक्त होती है वह अक्षरात्मक कही जाती हैं और जो ध्वनि वर्णों या अक्षरों से रहित होती है वह अनक्षरात्मक कही जाती है। जड़ वस्तुओं से जो ध्वनि निःसत की जाती है वह अभाषात्मक प्रायोगिक शब्द है। यह अभाषात्मक प्रायोगिक शब्द पाँच प्रकार के माने गये हैं १. तत-चमड़े से लपेटे हुए वाद्यों से निःसृत शब्द तत कहे जाते हैं। २. वितत-सारंगी, वीणा आदि तार वाले वाद्यों से निःसृत होने वाले शब्द वितत कहे जाते हैं। ३. घन झालर, घण्ट आदि पर आघात करने से जो शब्द होता है वह घन कहा जाता है। ४. सुषिर-फूंक कर बजाये जाने वाले शंख आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं। ५. संघर्ष-दो वस्तुओं का घर्षण करके उनसे जो शब्द उत्पन्न किया जाता है उसे संघर्ष कहते हैं । जैसे-झाँझ।। ___ यद्यपि स्वरूपतः ये सभी अभाषात्मक कहे गये हैं, किन्तु प्रायोगिक (प्रयत्नजन्य) होने के कारण इनसे होने वाली शब्द ध्वनियों को भाषात्मक रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। संगीत के स्वर इन्हीं वाद्यों से ही तो निकाले जाते हैं। अतः मेरी दृष्टि में इनमें भाषात्मक रूप में परिणत होने की क्षमता तो मानना ही होगा । धवला में कहा गया है कि नगारे आदि के शब्दों को उपचार से भाषात्मक कहा जाता है। अतः तत, वितत आदि वाद्यों से निकली शब्दध्वनि में भी किसी सीमा तक अक्षरात्मक ध्वनि हो सकती है। फिर भी वह स्पष्ट नहीं है, अतः उन्हें भाषात्मक शब्दध्वनि में अन्तरभावित नहीं किया गया है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि जब जीव के प्रयत्नों के द्वारा संघर्ष करके जो ध्वनि निकाली जाती है तो वह प्रायोगिक होती है किन्तु स्वाभाविक रूप से ही जब पदार्थों के संघर्ष से ध्वनि निकलती है तो वह वैनसिक कही जाती है-जैसे बादलों की गर्जना से होनेवाला शब्द । यह पूर्णतः अभाषात्मक है। तत्थ तदो णाम वीणा-तिसरिआलावणिवव्वीस खुक्खुणादिजणिदो। वितदो णाम भेरीमदिंगपटाहादिसमुन्भदो। घणो णाम जयघंटादिघणदव्वाणं संघादुठाविदो। सुसिरो णाम वंस-संख काहलादिजणिदो। घोसो णाम घस्समाणदव्वजणिदो । -धवला, ९३/४, ५, २६/२०१/७ (उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग ४, पृष्ठ ३) २. द्रष्टव्य-धवला १४/५-६, ८३/६१/१२-उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग ४, पृ०३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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