Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 50
________________ जैन शब्ददर्शन : ३७ जैन दार्शनिकों ने शब्द की अनित्यता के साथ-साथ शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को भी अनित्य माना है । इसकी चर्चा हम अग्रिम पृष्ठों में करेंगे। भाषादर्शन की दृष्टि से शब्द की नित्यता अथवा अनित्यता का प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है कि जहाँ एक ओर मीमांसक दार्शनिक यह मानते हैं कि यदि शब्द अनित्य है तो वह अर्थ का प्रतिपादक नहीं हो सकेगा। उनका कहना है कि यदि शब्द को आनत्य माना जायेगा तो वह उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेगा पुनः जिस शब्द में संकेत का ग्रहण किया गया है वह शब्द व्यवहारकाल में नहीं होगा और ऐसी स्थिति में वह अपने वाच्यार्थ का प्रतिपादक भी नहीं हो सकेगा। केवल नित्य शब्द हो अपने संकेतकाल और व्यवहारकाल में एक हो सकता है । वाचक शब्द को नित्य मानना इसलिए आवश्यक है कि उसमें ही वाच्य-वाचक रूप त्रैक सम्बन्ध के आधार पर अर्थ का ज्ञान कराने की सामर्थ्य होती है। मीमांसकों की इस मान्यता के विरोध में जैनों का कहना यह है कि शब्द में अर्थबोध की सामर्थ्य उसकी नित्यता के कारण नहीं अपितु सदृशता के कारण है। भूतकाल का उच्चरित 'गो' शब्द वर्तमानकाल के उच्चरित 'गो' शब्द से भिन्न है। फिर भी दोनों में सादृश्य है और इसी बल पर वे अपने द्वारा संकेतिक वस्तु का बोध कराते हैं। भूतकाल का 'गो' शब्द और उसका वाच्य 'गो' वर्तमान काल के 'गो' शब्द और उसके वाच्य 'गो' से किसी अर्थ में भिन्न भी है। अतः शब्द की नित्यता का अर्थबोध से कोई अपरिहार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है।' पुनः एक ही शब्द के वाच्य विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न हो जाते हैं । शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं, इस बात को आज भाषा वैज्ञानिकों ने स्पष्ट रूप से सिद्ध कर दिया है। यदि शब्द के वाच्यार्थ बदलते रहते हैं तो फिर अर्थबोध के लिए शब्द की नित्यता को मानने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। शब्द अर्थ कैसे पाता है : शब्द को अपने वाच्यार्थ को संकेतित करने की शक्ति किस रूप में उपलब्ध है—यह प्रश्न भी भाषा दर्शन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस सम्बन्ध में मुख्यतः दो प्रकार की अवधारणाएँ प्रचलित हैं। प्रथम अवधारणा यह मानती है कि शब्द में अपने वाच्यार्थ अथवा वाच्यविषय को संकेतित करने की स्वाभाविक शक्ति होती है। स्वाभाविक शक्ति से यहाँ यह तात्पर्य लगाया जाता है कि प्रत्येक शब्द अपने वाच्य विषय से अनादि रूप से सम्बन्धित है और उस शब्द के उच्चारण से वह वाच्य-विषय संकेतित हो जाता है। - किन्तु इसके विपरीत दूसरा सिद्धान्त यह मानता है कि शब्द में अपने वाच्यार्थ या वाच्यविषय को संकेतित करने की शक्ति स्वाभाविक नहीं होती। शब्द में अर्थ का आरोपण किया जाता है। शब्द रूढि. परम्परा या प्रयोग से अपने वाच्याथ को प्राप्त होता है। इस अवधारणा का सीधा और स्पष्ट अर्थ यह है कि शब्द में अपने वाच्य विषय को स्पष्ट करने की कोई स्वाभाविक शक्ति नहीं होती। वह उसे समाज, रूढ़ि या परम्परा से प्राप्त हुई है। दूसरे शब्दों में शब्द प्रयोग से अपना अर्थ पाते हैं । शब्द में अर्थ निहित नहीं होता, अपितु शब्द को अर्थ दिया जाता है। १. विस्तृत विवेचन के लिए देखें-जैन न्याय, पु० २५४-२६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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