Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 41
________________ अध्याय ३ जैन शब्द-दर्शन भाषा और शब्द - प्रज्ञापनासूत्र का प्रथम प्रश्न भाषा के प्रादुर्भाव से सम्बन्धित है, तो दूसरा प्रश्न भाषा की अभिव्यक्ति से सम्बन्धित है । भाषा को अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में महावीर का प्रत्युत्तर यह था कि भाषा शरीर से अर्थात् शारीरिक प्रयत्नों से उत्पन्न या अभिव्यक्त होती है । " जैन दार्शनिकों ने शब्दों को दो विभागों में बाँटा है - (१) प्रायोगिक और (२) वैनसिक । साथ यह भी माना है कि भाषा प्रायोगिक शब्दों से ही बनती है, वैस्रसिक शब्दों से नहीं । भाषा जीव के शारीरिक प्रयत्नों का परिणाम है । अतः प्रज्ञापना का यह कथन समुचित ही है कि भाषा शरीर से उत्पन्न होती है । भाषा के लिए न केवल इन्द्रिय-युक्त शरीर आवश्यक है अपितु वक्ता और श्रोता में बुद्धि या विचार - सामर्थ्य का होना भी आवश्यक है । भाषा श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान अनिवार्य रूप से मतिज्ञान पूर्वक ही सम्भव है, पुनः मतिज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन का होना आवश्यक है । अतः भाषा चाहे वह ध्वनि-संकेत के रूप में हो या अन्य शारीरिक संकेतों के रूप में वह इन्द्रियों और बौद्धिक मन के माध्यम से ही सम्भव होती है । जीव के, अपने शरीर के माध्यम से, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति के जो प्रयत्न होते हैं, वे ही भाषा का रूप ग्रहण करते हैं और यही भाषा की उत्पत्ति / अभिव्यक्ति का आधार है । इस दृष्टि से प्रज्ञापना का यह कथन कि भाषा की उत्पत्ति शरीर / शारीरिक प्रयत्नों से होती है, समुचित ही है । यद्यपि सभी प्रकार के शारीरिक संकेतों से होने वाले अर्थ-बोध को भाषा कह सकते हैं, किन्तु सामान्यतया जब हम मानवीय सन्दर्भों में भाषा की बात करते हैं तो हम उसमें सभी प्रकार के शारीरिक संकेतों का समावेश न करके केवल ध्वनि संकेतों का समावेश करते हैं इस दृष्टि से मानवीय भाषा अक्षरात्मक या शब्दात्मक कही जा सकती है । यद्यपि यह सत्य है कि भाषा शब्दात्मक होती है, किन्तु सभी शब्द भाषात्मक नहीं होते हैं । जैन चिन्तकों ने शब्दों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया है प्रायोगिक भाषात्मक अक्षरात्मक अनक्षरात्मक Jain Education International शब्द वैस्रसिक 1 अभाषात्मक (रूप में परिवर्तित किये जा सकते हैं । के) !. अभाषात्मक (भाषात्मक रूप से परिवर्तन नहीं) यद्यपि प्रायोगिक होने के कारण भाषा के संघर्ष तत वितत घन सुषिर संघर्ष १. भासां णं भंते ! किं पवहा ? गोयमा । सरीरप्पभवा भासा । - प्रज्ञापना, भाषापद ११।१५ । २. तत्त्वार्थ सूत्र, विवेचक - पं० सुखलाल संघवी, पृ० १२९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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