Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 39
________________ २६ : जैन भाषादर्शन लिपियों के सम्बन्ध में एक सूची हमें बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर में भी मिलती है। उसमें निम्न ६४ लिपियों का उल्लेख मिलता है-१. ब्राह्मीलिपि, २. खरोष्ठीलिपि, ३. पुष्करसारी, ४. अंगलिपि, ५. वंगलिपि, ६. मगधलिपि, ७. मंगल्यलिपि, ८. अंगुलीयलिपि, ९. शकारलिपि, १०. ब्रह्मवलीलिपि, ११. पारुष्यलिपि. १२. द्राविड़लिपि, १३. किरातलिपि. १४. दाक्षिण्यलिपि, १५. उग्रलिपि, १६. संख्यालिपि, १७. अनुलोमलिपि, १८. अवमर्धलिपि, १९. दरदलिपि, २०. खाष्यलिपि, २१. चीनलिपि, २२. लूनलिपि, २३. हूनलिपि, २४. मध्याक्षरविस्तरलिपि, २५. पुष्पलिपि, २६. देवलिपि, २७. नागलिपि, २८. यक्षलिपि, २९. गन्धर्वलिपि, ३०. किन्नरलिपि, ३१. महोरगलिपि, ३२. असुरलिपि, ३३. गरुड़लिपि, ३४. मगचक्रलिपि, ३५. वायसरुतलिपि, ३६. भौमदेवलिपि, ३७. अन्तरिक्षदेवलिपि, ३८. उत्तरकुरुद्वीपलिपि, ३९. अपरगोदानीयलिपि, ४०. पूर्णविदेहलिपि, ४१. उत्क्षेपलिपि, ४२. निक्षेपलिपि, ४३. विक्षेपलिपि, ४४. प्रक्षेपलिपि, ४५. सागरलिपि, ४६. वज्रलिपि, ४७. लेखप्रतिलेखलिपि, ४८. अनुपद्रुतलिपि, ४९, शास्त्रावर्तलिपि, ५०. गणनावर्तलिपि, ५१. उत्क्षेपावर्तलिपि, ५२. निक्षेपावर्तलिपि, ५३. पादावर्तलिपि, ५४. द्विरुत्तरपदसंधिलिपि, ५५: अध्याहारिणीलिपि, ५६. सर्वरुतसंग्रहणीलिपि, ५७. विद्युनालोमाविमिश्रितलिपि, ५८. ऋषितपस्तप्तालिपि, ५९. रोचमानालिपि, ६०. धरणीप्रेक्षणीलिपि, ६१. गगनप्रेक्षणीलिपि, ६२. सर्वांषधिनिष्यन्दालिपि, ६३. सर्वसारसंग्रहणीलिपि, ६४. सर्वभूतरुतग्रहणीलिपि (परिववर्त १०) । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि ललितविस्तर में उल्लिखित निम्न लिपियाँ उपर्युक्त जैन परम्परा की तीनों सूचियों में कहीं न कहीं उपलब्ध हो जाती हैं-१. ब्राह्मी, २ खरोष्ठी, ३. पुष्करसारी, ४. द्राविड, ५. संख्यालिपि (अंकलिपि), ६. यक्षलिपि ७. गन्धर्वलिपि, ८. अन्तरिक्षलिपि, ९. असुरलिपि (राक्षसलिपि) आदि । यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जैन सूचियों में उल्लिखित अनेक लिपियाँ ऐसी हैं जितका समावेश ललितविस्तर की सूची में नहीं हुआ है। बौद्ध ग्रन्थ 'सुत्तन्त' में अक्खरिकाखे का उल्लेख हुआ है । सम्भवतः यह समवायाङ्ग में सूचित अन्तरिक्खिया हो। उपर्युक्त लिपियों में अनेक लिपियाँ ऐसी हैं जिनका चाहे किसी समय अस्तित्व रहा हो किन्तु आज उनके अस्तित्व के हमें कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। समवायाङ्ग और प्रज्ञापना की प्राप्त लिपिसूचियों में उल्लिखित लिपियों में केवल ब्राह्मी, खरोष्ठी और जवणी ही ऐसी लिपियाँ हैं जिनके अभिलेख आज भी प्राप्त हैं। शेष लिपियों के सम्बन्ध में आज निश्चयात्मक रूप से कुछ कह पाना सम्भव नहीं है। यद्यपि निह्नविका को गुप्त या सांकेतिक लिपि के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यह कोई गुप्तलिपि रही होगी, क्योंकि जैन परम्परा में निह्नव शब्द छिपाने के अर्थ में प्रचलित रहा है। अंकलिपि और गणितलिपि के अस्तित्व को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि दक्षिण में विश्वेश्वर के निवासी यलप्पा शास्त्री के पास इस लिपि में लिखा हुआ एक करोड़ श्लोकों का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ था जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद आदि कई लोगों ने देखा । इस ग्रन्थ को संख्याओं में लिखा गया था। संख्यात्मक संकेतों के आधार पर उसमें विभिन्न विषयों के अनेक ग्रन्थ समाहित थे। इसी प्रकार गान्धर्वलिपि गन्धार देश की और भूतलिपि भूटान देश की लिपि मानी जा सकती है। माहेश्वरीलिपि माहेश्वरी जाति-जो कि वैश्यों को एक जाति है-को लिपि मानी जा सकती है। विशेषावश्यक भाष्य में उल्लिखित यवनी, कीरो (क्रीटलिपि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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