Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 33
________________ २० : भाषादर्शन तीन मागध भाषाएँ तीन गौड भाषाएँ ___आज भी भारत में प्रचलित विविध भाषाएँ इन्हीं भाषाओं के कालक्रम में संस्कारित एवं मिश्रित रूपों से निर्मित हुई हैं। अनार्य भाषाओं के अन्तर्गत अभारतीय भाषाओं को समाहित किया गया है। जैनाचार्यों के अनुसार इसके काश्मीरी (किरी), पारसी, सिंहली, बर्बरिक आदि सात सौ भेद हैं । ऐसा लगता है कि जैनाचार्य सभी अभारतीय भाषाओं से परिचित नहीं थे। अतः वे कुछ परिचित अभारतीय भाषाओं के नाम ही गिना पाये। अभारतीय भाषाओं की उनके द्वारा कल्पित सात सौ की यह संख्या कितनी प्रामाणिक है, यह कहना तो कठिन है, फिर भी वर्तमान में प्रचलित भाषाओं और बोलियों को देखते हुए यह संख्या पूर्णतः काल्पनिक एवं अतिशयोक्ति पर्ण भी नहीं लगती है। जैन ग्रन्थों में जिन भारतीय और अभारतीय भाषाओं का उल्लेख मिलता है, उस पर भाषावैज्ञानिकों द्वारा शोधकार्य की अपेक्षा है । चूँकि यहाँ मेरा प्रतिपाद्य विषय भाषा-विज्ञान न होकर भाषा-दर्शन है, अतः इस ग्रन्थ में इन सबका गहराई से विवेचन करना सम्भव नहीं है। अनक्षरात्मक भाषा-स्वर, व्यञ्जनादि वर्गों के प्रयोग से रहित ध्वनि संकेतों, शारीरिक चेष्टाओं और अन्य प्रकार के माध्यम से की जाने वाली भावाभिव्यक्ति और होनेवाले अर्थबोध को जैनाचार्यों ने अनक्षरात्मक भाषा कहा है। उनके अनुसार द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों, मूक, बालकादि के ध्वनि संकेत और सांकेतिक चेष्टाएँ और तीर्थकरों की दिव्यध्वनि--ये सभी अनक्षरात्मक भाषा के रूप हैं । द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों में श्रुत अर्थात् भाषाज्ञान का अस्तित्व मानना इसलिए आवश्यक है कि ये सभी प्राणी ध्वनि आदि संकेतों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति एवं अर्थबोध प्राप्त करते हैं । विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्टरूप से कहा गया है कि उच्छ्वास लेना, निःश्वास डालना, थूकना, खाँसना, छींकना, ताली बजाना, सीत्कार करना आदि अनक्षर श्रुत (अनक्षरात्मक भाषा) हैं | क्योंकि किसी की निःश्वास (आह) को सुनकर उसके शोकाकुल होने का अर्थबोध होता है, इसी प्रकार अन्य शारीरिक चेष्टाएँ भी जो अक्षर रहित होकर भी श्रोता या द्रष्टा को अर्थबोध कराती हैं, अनक्षर श्रुत/अनक्षरात्मक भाषा के ही रूप हैं । भाषाओं और लिपियों की कोई संख्या या सीमा हो सकती है, किन्तु सांकेतिक चेष्टाओं से होनेवाले अर्थबोध की सीमा निश्चित करना कठिन है। प्राणियों के जातिभेद, ध्वनिभेद, चेष्टाभेद एवं अर्थभेद के आधार पर अनक्षर श्रत/अनक्षरात्मक भाषा के अनेक प्रकार हो सकते हैं। तीर्थंकरों को दिव्यध्वनि अक्षरात्मक होती है या अनक्षरात्मक होती है-इस प्रश्न पर जैनधर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों में १. तत्थ कुभासाओ कीर, पारसिय, सिंघल ववरियादीण विणिग्गयाओ सत्तसयभेदभिण्णाओ। -धवला १३।५, ५, २६।२२११११ । २. (अ) तत्थ अणक्खरगया बीइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदियाणं मुहसमुन्भुदा बालमूअसण्णिपंचिंदिय भासा च । -वही १३५, ५, २६।२२१३१० । (ब) अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च ।-पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति ७९।१३५१७ । ३. ऊससियं नीससियं निच्छूढं खासि च छीयं च । निस्सिंघियमणुसारं अणक्खरं छेलियाईयं ॥ -विशेषावश्यक भाष्य ५०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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