Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 34
________________ विषयप्रवेश : २१ मतभेद है, किन्तु दोनों ही इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि वह भाषायी अभिव्यक्ति है, क्योंकि उससे विविध प्राणी अर्थबोध प्राप्त करते हैं । इस समग्र विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भाषा के स्वरूप एवं प्रकारों के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण व्यापक है । वे रूढ़िवादी ब्राह्मण दार्शनिकों के समान यह नहीं मानते हैं कि संस्कृत शब्द और संस्कृत भाषा में ही एकमात्र सम्यक् अर्थबोध की सामर्थ्य है । उनके अनुसार भाषा एक व्यापक अवधारणा है, उसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भारतीय भाषाएँ ही नहीं, अपितु विश्व की सभी भाषाएँ और बोलियाँ समाहित हैं । मात्र यही नहीं, वे अनक्षर श्रुत की अवधारणा को स्त्रीकृत करके भाषा को इतना व्यापक बना देते हैं कि उसमें मात्र दृश्य और श्रव्य ही नहीं, अपितु सभी प्रकार का सांकेतिक अर्थबोध समाहित हो जाता है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि संकेत की अनुभूति और उससे होनेवाला अर्थबोध दोनों अलग-अलग हैं । जैनों के अनुसार संकेत का इन्द्रिय सम्वेदन मतिज्ञान है और उस संकेत के इन्द्रिय सम्वेदन से होनेवाला अर्थबोध श्रुतज्ञान या भाषायीज्ञान है । किसी को लाल झण्डी हिलाते हुए देखना मतिज्ञान है और उससे यह अर्थ लगाना कि गाड़ी रोको, आगे मार्ग अवरुद्ध है - - श्रुत या भाषायी ज्ञान है । इस प्रकार भाषायीज्ञान / श्रुतज्ञान का तात्पर्य है - संकेतों / चिह्नों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करना और ऐसी भावाभिव्यक्ति को समझना । 1 भाषा के मूल उपादान भाषा का मुख्य प्रयोजन है— प्रतीकों / संकेतों के माध्यम से अनुभूतियों, भावनाओं और विचारों का सम्प्रेषण कर दूसरों को अर्थबोध (ज्ञान) कराना, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'परोपदेश' कहा जाता है, यही परोपदेश भाषा का मुख्य कार्य है । भाषा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रतीकों/संकेतों का सहारा लेती है । जब ये प्रतोक वर्णों/अक्षरों से निर्मित शब्द / पद होते हैं, तो वह अक्षरात्मक भाषा कहलाती है । यद्यपि जैनाचार्यों ने ऐसी भाषा का अस्तित्व स्वीकार किया है, ' जिसके प्रतीक /संकेत वर्णात्मक नहीं होते हैं। इस अनक्षरात्मक भाषा की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। प्रस्तुत प्रसंग में भाषा से हमारा तात्पर्य वर्णात्मक या अक्षरात्मक भाषा से ही है, क्योंकि जनसाधारण भाषा से अक्षरात्मक एवं शब्दात्मक भाषा को ग्रहण करता है । सामान्यतया मानवजाति में विचार सम्प्रेषण का कार्य वाक्यों के द्वारा होता है । ये वाक्य शब्दों / पदों से निर्मित होते हैं और शब्द एवं पद वर्णों या अक्षरों से निर्मित होते हैं । इस प्रकार भाषा का मूल या अन्तिम उपादान वर्ण या अक्षर होते हैं ।' अक्षर/वर्ण की परिभाषा - सामान्यतया किसी भी भाषा में प्रयुक्त होनेवाले स्वर-व्यंजनों को वर्ण / अक्षर कहा जाता है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का कहना है कि जिससे अर्थ का प्रतिपादन ( क्षरण) होता है, किन्तु स्वयं क्षीण (क्षरित) नहीं होता है, वह 'अक्षर' है (अत्थे य खरइ न य जेण खिज्जई अक्खर तेण - विशेषावश्यक ४६१) । उनका कहना है कि स्वर - व्यञ्जनों को अक्षर कहना यह तो मात्र उनका रूढ़ार्थ है ( रूढ़िवशादक्षर वर्ण इत्युक्त) । वस्तुतः तो अक्षर वह १. वर्णपदवाक्यात्मकं वचनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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