Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 35
________________ २२ : भाषादर्शन है जो अर्थ (meaning) का क्षरण करके भी क्षरित नहीं होता है अर्थात् अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करता है । इस दृष्टि से 'ज्ञान' को ही अक्षर कहा गया है ।" वस्तुतः आत्मा का जो चेतना - भाव है, बोध शक्ति या ज्ञानशक्ति है, वही अक्षर है । जैनों की पारम्परिक शब्दावली में निश्चय दृष्टि से तो आत्मा की ज्ञानशक्ति या अर्थबोध सामर्थ्य ही 'अक्षर' है, किन्तु व्यवहार दृष्टि से या द्रव्यदृष्टि से वर्णात्मक ध्वनियों को या वर्णों की लिपिगत आकृतियों को भी अक्षर कहा गया है । अक्षर के भेद- जैनाचार्यों ने अक्षर / वर्ण की आकृतिरूप, ध्वनिरूप और ज्ञानरूप - ऐसी तीन अवस्थाएँ मानी हैं और इन तीन अवस्थाओं के आधार पर उसके निम्न तीन विभाग किये हैं-१ संज्ञा अक्षर, २ व्यञ्जनाक्षर और ३ लब्ध्यक्षर । अक्षरों या वर्णों का संस्थान (आकृति) संज्ञा- अक्षर है अर्थात् विविध प्रकार की लिपियों में विविध वर्णों की जो आकृतियाँ बनायी जाती हैं या जो आकार निर्धारित हैं, उन आकृतियों या आकारों को संज्ञाक्षर कहते हैं, संज्ञाक्षर लिप्यक्षर हैं । दूसरे शब्दों में लिपि संज्ञाक्षर है । विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों में अभीष्ट अर्थ को संकेतित करने के लिए जो स्वरों एवं व्यञ्जनों का उच्चारण या ध्वनि होती है, उसे व्यञ्जनाक्षर कहते हैं। इस प्रकार भाषा में प्रयुक्त वर्णों (अक्षरों) के उच्चरित या घोष रूप व्यञ्जनाक्षर | संज्ञाक्षर और व्यञ्जनाक्षर अर्थात् लिखितभाषा और उच्चरित भाषा — दोनों को जैनों ने उपचार से ही श्रुतज्ञान माना है, ये दोनों द्रव्य -अक्षर हैं । वस्तुतः ये जड़ हैं और ज्ञान या अर्थबोध के निमित्त या साधन मात्र हैं । इन दोनों के आधार पर होनेवाला जो अर्थबोध है, वहो लब्ध्यक्षर है लब्धि सामर्थ्य या शक्ति को कहते हैं । पारिभाषिक शब्दावली में आत्मा के उपयोग (ज्ञान) को लब्धि कहा गया है । वर्णों या अक्षरों की अर्थ संकेतसामर्थ्य या अर्थ संकेतित करने की शक्ति हो लब्ध्यक्षर है ।" लब्ध्यक्षर भाषा का चेतनागत पक्ष । १. ( अ ) नक्खरइ अणुवओगेऽ वि अक्खरं सो य वेयणाभावो । (ब) जइ विहु सव्वं चिय नाणमक्खरं तह वि रूढिओ वन्नो । - विशेषावश्यक भाष्य ४५५ एवं ४५९ । २. ( अ ) त सण्णा वंजण लद्धिसण्णियं तिविहमक्खरं - विशेषावश्यकभाष्य ४६४ । (ब) से किं तं अक्खरसुयं ? अक्खरसुयं तिविहं पन्नतं । तं जहा - सन्नक्खर, वंजनक्खर, लद्धिक्खर ॥ ३. ( अ ) से कि तं सन्नक्खर ? सन्नक्खर संठाणगिइ से तं सन्नक्खर । (ब) सुबहुलिविभेयनिययं सण्णक्खर मक्खरागारो । - विशेषावश्यकभाष्य ४६४ । ४. (अ) से किं तं वण्णक्खर ? वंजणखर अक्खरस्स वंजणा भिलाओ से तं वंजणक्खर । (ब) वंजिज्जइ जेणत्थो घड़ो व्व दीवेण वंजणं तो तं । भण्णइ भासिज्जतं सव्वमकाराइ तक्काल || -- विशेषावश्यकभाष्य ४६५ । ५. (अ) से किं तं लद्धि-अक्खर ? लद्धि अक्खर । अक्खर लद्धियस्स लद्धि अक्खर समुप्पज्जई ॥ (ब) जो अखरोवलंभो सा लद्धी तं च होइ विष्णाणं इंदिय मणोनिमित्तं जो आवरणक्खओवसमो ॥ - विशेषावश्यक भाष्य ४६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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