Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 32
________________ विषयप्रवेश : १९ मत ही अधिक युक्तिसंगत लगता है. क्योंकि लिखित भाषा श्रव्य न होकर दृश्य होती है, उसे देखकर (पढ़कर) अर्थबोध (ज्ञान) होता है । पं० बेचरदासजी ने भी इसी मत की पुष्टि की है। वे लिखते हैं-मेरी दृष्टि से 'श्रुत' शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग करते हुए श्रूयमाण और दृश्यमान दोनों प्रकार के संकेतों और चेष्टाओं को श्रुतज्ञान में समाविष्ट करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि हमारी भावाभिव्यक्ति के साधन ध्वनि संकेत, शारीरिक चेष्टायें और अन्य प्रकार के संकेत-ये सभी हैं और हम यह मानते हैं कि संकेतों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करना और अर्थबोध प्राप्त करना ही भाषा है, तो हमें सांकेतिक अभिव्यक्तियों के इन सभी रूपों को भाषा के अन्तर्गत समाविष्ट करना होगा और इन्हें भाषायी अभिव्यक्ति के ही विविध प्रकार मानने होंगे। इस आधार पर जैन दर्शन में भाषा को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है ___ भाषा (श्रुत) अक्षरात्मक अनक्षरात्मक श्रव्य (उच्चरित) दृश्य (लिखित) श्रव्य श्रव्येतर अक्षरात्मक भाषा के प्रकार-स्वर, व्यञ्जनादि से युक्त भाषा अक्षरात्मक भाषा है। यह मौखिक (श्रव्य) और लिखित (दृश्य) भेद से दो प्रकार की है। संसार को लगभग सभी भाषाएँ एवं बोलियाँ इसके अन्तर्गत आ जाती हैं। सामान्यतया मनुष्यों की सभी विकसित भाषाएँ अक्षरात्मक हैं । अक्षरात्मक भाषा वह भाषा है जो स्वर-व्यञ्जनादि वर्गों से बननेवाले सार्थक शब्दों, पदों एवं वाक्यों से निर्मित होती है। जैनाचार्यों के अनुसार ऐसी भाषा शक्ति केवल संज्ञी (विवेकशील = Rational) पञ्चेन्द्रिय प्राणियों अर्थात् मनुष्यों और अन्य विकसित प्राणियों में ही होती है । अक्षरात्मक भाषा को जैनाचार्यों ने आर्य भाषा (भाषा) और अनार्यभाषा (कुभाषा) के आधार पर दो भागों में विभाजित किया है। पुनः आर्य भाषा में निम्न अठारह भारतीय भाषाओं का समावेश किया है - तीन कर्णाट भाषाएँ तीन मरहट्ट भाषाएँ तीन लाढ भाषाएँ तीन मालव भाषाएँ १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग १ पृ० १४ ।। २. अक्षरीकृतः शास्त्राभिव्यञ्जकः संस्कृतविपरीतभेदादार्यम्लेच्छव्यवहारहेतुः।-सर्वार्थसिद्धि ५।२४।२९५।१। ३. अक्खरगया अणुवघादिदियसण्णिपंचिदियपज्जतभासा । सा दुविहा-भासा कुभासा । -धवला १३१५, ५, २६।२२११११ । ४. भासाओ पुण अट्ठारस हवंति-तिकुरुक, तिलाढ, तिमरहट्ठ, तिमालव, तिगउड, तिमागध भासभेदेण ।-बही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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