Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 30
________________ विषयप्रवेश : १७ वह तो मतिज्ञान का ही रूप होगा । इस सम्बन्ध में जैन मान्यता यही है कि जब ज्ञाता स्वयं जानता है तो अनक्षर श्रुत है और जब दूसरों को ज्ञान कराता है, अथवा दूसरों से ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह अक्षर श्रुत है । स्वयं ज्ञान करने में भाषा का प्रयोग होता है, किन्तु अक्षरों का उच्चारण नहीं होता है, अतः वह अनक्षर श्रुत है । अनक्षर का अर्थ भाषा रहित नहीं, शब्दोच्चारण से रहित होना है । अनक्षर श्रुत का दूसरा अर्थ यह होता है कि उसमें शब्दों (भाषायी ध्वनि-संकेतों) के अतिरिक्त अन्य संकेतों से अर्थबोध कराया जाता है । क्योंकि इसमें शब्दों का प्रयोग नहीं है फिर भी अर्थबोध है, अतः यह अनक्षर श्रुत है । अतः संकेत की व्यक्तता और अव्यक्तता ही श्रुतज्ञान और मतिज्ञान के भेद का आधार है । मतिज्ञान में भाषा का कोई स्थान ही नहीं है, यह मान्यता भी उचित नहीं है। मेरी दृष्टि में अवग्रह को छोड़कर ईहा आदि मतिज्ञान के अन्य सभी रूप भी भाषा से सम्बन्धित हैं, क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में जहाँ चिन्तन या विचार का प्रारम्भ होता है वहाँ स्वाभाविक रूप से भाषा आ ही जाती है। इस प्रकार श्रुतज्ञान के साथ ही मतिज्ञान में भी अवग्रह के पश्चात् की समस्त प्रक्रिया भाषा से सम्बन्धित है, क्योंकि वह चिन्तन एवं विमर्श से युक्त है। यह एक अनुभूत सत्य है कि मनुष्य में जो भी सोचने-विचारने की प्रक्रिया घटित होती है, वह भाषा में घटित होती है, उमसे अन्यथा नहीं । भाषा के बिना चिन्तन और मनन सम्भव ही नहीं है । अतः निविशेष एवं निर्विकल्प इन्द्रियानुभूति और आत्मानुभूति को छोड़कर शेष सभी ज्ञानात्मक व्यवहार भाषा पर आधारित हैं । इस प्रकार जैनों का मतिज्ञान भी किसी सीमा तक भाषा से सम्बन्धित है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल-इन पाँच ज्ञानों में आंशिक रूप से मतिज्ञान और पूर्णरूप से श्रुतज्ञान भाषा से सम्बन्धित हैं। मात्र अवधि, मनःपर्यव और केवल-ये तीन ज्ञान अपरोक्ष आत्मानुभूति के रूप में भाषा से सम्बन्धित नहीं हैं। मतिज्ञान में मात्र व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह ही ऐसे हैं, जो भाषा से सम्बन्धित नहीं हैं। शेष ईहा, अपाय और धारणा-सभी अव्यक्तरूप से भाषा से सम्बन्धित हैं, क्योंकि इनमें संशय, चिन्तन और विमर्श होते हैं और ये सभी बिना भाषा के सम्भव नहीं हैं । आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भी चिन्तन अव्यक्त भाषा व्यवहार ही है। अतः हम कह सक व्यवहार ही है। अतः हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन में विचार और भाषा अपरिहार्य से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। बिना भाषा के विचार एवं चिन्तन सम्भव नहीं है। भाषा के प्रकार __सामान्यतया वे सभी ध्वनि संकेत, शारीरिक संकेत एवं अन्य प्रकार से किये गये संकेत, जो वक्ता या संकेतकर्ता की भावाभिव्यक्ति को श्रोता या द्रष्टा तक पहुँचाते हैं और श्रोता या दृष्टा उनसे अर्थबोध प्राप्त करता है, भाषा कहलाते हैं। जैन परम्परा में भाषात्मक ज्ञान को श्रुत कहा गया है, क्योंकि जैनाचार्यों ने श्रुतज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा है कि एक प्रकार के ज्ञान (इन्द्रियबोध) से जो दूसरा ज्ञान (अर्थ-बोध) होता है, वह श्रुतज्ञान है।' जैसे गाय शब्द सुनकर गाय नामक प्राणी का ज्ञान । भाषा का भी यही लक्षण है। भाषा/श्रुत के दो भेद किये गये है-१ अक्षरश्रुत और २ १. अत्थाओ अत्यंतर उवलंभे तं भणंति सुयणाण-पंचसंग्रह १११२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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