Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 29
________________ १६ : जैन भाषा-दर्शन अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा-ऐसे चार भेद किए गए हैं, उनमें अवग्रह को छोड़कर शेष सभी प्रकारों में चिन्तन और विमर्श होता है, जो भाषा के बिना नहीं होता; अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि अवग्रह को छोड़कर शेष सभी प्रकार का मतिज्ञान श्रुतज्ञान का अनुसारी है, क्योंकि यह स्पष्ट है कि जहाँ भाषा व्यवहार है वहाँ श्रुतज्ञान है और अवग्रह के बाद ईहा और अपाय में निश्चित रूप से भाषा व्यवहार है। विशेषावश्यकभाष्य एवं जैनतर्कभाषा में यह प्रश्न उठाया गया है कि अवग्रह ही मतिज्ञान है, ईहादि भाषा शब्दोल्लेख सहित होने से मतिज्ञान नहीं होंगे, अतः उन्हें श्रुतज्ञान मानना पड़ेगा। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि यद्यपि ईहादि शब्दोल्लेख सहित हैं, फिर भी वे शब्दरूप नही प नहीं है, क्योकि अभिलाप्य ज्ञान जब श्रुत अनुसारी होता है तभी वह श्रुत कहलाता है, अन्यथा नहीं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अंतर व्यक्त वचन-व्यवहार एवं अक्षर-प्रयोग के आधार पर किया गया है। वस्तुतः मतिज्ञान में अव्यक्तरूप से ही भाषा-व्यवहार देखा जाता है, व्यक्त रूप से नहीं । मति और श्रुत में भेद मूक और अमूक के आधार पर ही है। यह भी कहा जा सकता है कि ईहादि श्रुत निश्रित ही हैं, क्योंकि संकेत काल में सुने हुए शब्द का अनुसरण किए बिना वे घटित नहीं होते । यह ठीक है कि श्रुत से संस्कार प्राप्त मति वाले व्यक्ति को ईहादि उत्पन्न होते हैं इसीलिए उन्हें श्रत निश्रित कहा गया, किन्तु उनमें व्यवहार काल म उन्हें श्रुत ज्ञानरूप नहीं माना जा सकता ।' वस्तुतः चिन्तन और मनन में अव्यक्त रूप में भाषा व्यवहार होते हुए भी बाह्यरूप से वचन प्रवृत्ति का अभाव होता है और इसी बाह्य वचन प्रवृत्ति के आधार पर या व्यक्त संकेतात्मकता के आधार पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का भेद किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में मतिज्ञान के ईहादि भेदों में अव्यक्त रूप से भाषा-व्यवहार है और श्रुतज्ञान में व्यक्त रूप से भाषा व्यवहार है । पं० सुखलालजी तत्त्वार्थसूत्र की विवेचना में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता है और श्रुतज्ञान में होता है । अतएव दोनों का फलित लक्षण यह है कि जो ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख (व्यक्त भाषा प्रयोग) सहित है, वह श्रुतज्ञान है और जो शब्दोल्लेख रहित है, वह मतिज्ञान है। शब्दोल्लेख के तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए आगे वे लिखते हैं कि शब्दोल्लेख का मतलब व्यवहारकाल में शब्दशक्तिग्रह जन्यत्व से है अर्थात् जैसे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेत, स्मरण और श्रुतग्रन्थ का अनुसरण अपेक्षित है, वैसे ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति में अपेक्षित नहीं है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि जो ज्ञान भाषा में उतारा जा सके, वह श्रुतज्ञान और जो ज्ञान भाषा में उतारने लायक परिपाक को प्राप्त न हो, वह मतिज्ञान है । श्रुतज्ञान खीर है तो मतिज्ञान दूध ।२ श्रुतज्ञान को भी जैनाचार्यों ने दो भागों में विभक्त किया है-(१) अक्षर श्रुत और (२) अनक्षर श्रुत । यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि श्रुतज्ञान भाषा से सम्बन्धित है तो फिर अनक्षर श्रुत का क्या अर्थ होगा? १. द्रष्टव्य-(अ) जैन तर्क भाषा ,पृ० ५ 'मति श्रुतयोविवेक'-श्री त्रिलोक रत्न धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी से प्रकाशित । ____ (ब) विशेषावश्यकभाष्य, ९५०-१०४ पर हेमचन्द्राचार्य की वृत्ति (गुजराती अनुवाद, पृ० ५८-६१) २. तत्त्वार्थ सूत्र, पृ० २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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