Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

Previous | Next

Page 27
________________ १४ : जैन भाषा-दर्शन ही ब्रह्म मानकर भाषा को अनादि माना है। फिर भी उनकी अनादि की कल्पना जैनों की अनादि की कल्पना से भिन्न है । जैनों का अनादि से आशय मात्र इतना ही है कि भाषा का प्रारम्भ कब से हआ, यह बता पाना कठिन है। उन्होंने भाषा को ईश्वर-सृष्ट नहीं माना है। जैनों के अनुसार भाषा की उत्पत्ति ईश्वर से नहीं अपितु जीव-जगत् या प्राणी-जगत् से है। जैन चिन्तकों के अनुसार भाषा की बहुविधता ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि भाषा ईश्वर-सृष्ट न होकर जीव-सृष्ट है। जीव-जगत की विविधता ही भाषा की विविधता का आधार है। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि डा. भोलानाथ तिवारी ने अपनी पुस्तक 'भाषा-विज्ञान' में जैनों को भी भाषा की देव। उत्पत्ति के सिद्धान्त को माननेवाला बता दिया है। इसके लिए उन्होंने जो उदाहरण प्रस्तुत किया है वही उनके कथन को असंगत सिद्ध कर देता है । वे लिखते हैं-जैन लोग तो संस्कृत पंडितों और बौद्धों से चार कदम आगे हैं । उनके अनुसार तो अर्धमागधी केवल मनुष्यों की ही मूल भाषा नहीं, अपितु सभी जीवों की मूलभाषा है । "और जब महावीर स्वामी इस भाषा में उपदेश देते हैं तो क्या दैवी योनि के लोग और क्या पशुपक्षी-सभी उस उपदेश का रसास्वादन करते थे। डॉ० भोलानाथ तिवारी की अवधारणा वस्तुतः जैन परम्परा को सम्यक्रूप से नहीं समझ पाने के कारण है। जैनों ने यह कभी नहीं माना है कि अद्धमागधी सभी जीवों की मूल भाषा है । जैन दार्शनिकों के अनुसार सभी प्राणियों की अपनी-अपनी भाषा होती है और तीर्थंकरों के उपदेश को वे अपनी-अपनी भाषा में ही समझते हैं, न कि अर्धमागधी भाषा में । समवायांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “भगवान् अर्धमागधी भाषा में उपदेश देते हैं। उनके द्वारा बोली गई वह अर्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य आदि द्विपद (मनुष्य), मृग, पशु आदि चतुष्पद, सरिसृप और पक्षी सभी की अपनी-अपनी हितकर, कल्याणकर और सुखकर भाषा में परिणत हो जाती है''२ अर्थात् वे सभी उसे समझकर अर्थबोध प्राप्त कर लेते हैं। इससे इतना स्पष्ट है कि उन सबकी अपनी-अपनी अलग भाषा है, यद्यपि यह एक भिन्न प्रश्न है कि वे उसे अपनी भाषा में किस प्रकार समझते हैं ? इसका सम्भाव्य उत्तर यही हो सकता है कि तीर्थंकर कुछ ऐसे ध्वनि संकेतों और शारीरिक संकेतों और मुद्राओं का प्रयोग करते थे, जिससे वे उनके कथन के आशय को समझ लेते थे। आज भी मानव व्यवहार में ऐसे अनेक ध्वनि संकेत और शरीर संकेत हैं, जिनका अर्थ अन्य भाषा-भाषी ही नहीं, पशु-पक्षी भी समझ लेते हैं। पुनः दिगम्बर परम्परा तो तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि को अक्षरात्मक न मानकर अनक्षरात्मक ही मानती है। अतः जैनों के अनुसार न तो कोई ईश्वर जैसी सत्ता है, जो भाषा की सृष्टि करती है, न तीर्थंकर ही भाषा के सृष्टा हैं । भाषा ईश्वर-सृष्ट न होकर प्राणी-सृष्ट है तथा प्रवाह रूप से अनादि है । इस प्रकार भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैनमत नैयायिकों से भिन्न है। भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में भाषा-वैज्ञानिकों में दूसरे सिद्धान्त-धातु-सिद्धान्त, निर्णयसिद्धान्त, ध्वनि-अनुकरण-सिद्धान्त, मनोभाव-अभिव्यक्ति-सिद्धान्त, इंगित-सिद्धान्त आदि प्रचलित हैं । यद्यपि इनमें से कोई भी सिद्धान्त भाषा की उत्पत्ति की निर्विवाद व्याख्या दे पाने में समर्थ नहीं है । वस्तुतः भाषा एक विकासमान एवं गत्यात्मक प्रक्रिया है। उस पर अनेक बातों का प्रभाव पड़त । इसलिए केवल किसी एक सिद्धान्त के आधार पर उसकी उत्पत्ति को सिद्ध नहीं किया जा १. भाषा विज्ञान (भोलानाथ तिवारी), पृ० २८ । २. समवायांग, ३४।१ ३. अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च । -पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, ७९।१३५१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124