Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 24
________________ विषयप्रवेश : ११ अच्छा है या जागना अच्छा है, तो इस प्रश्न का कोई भी निरपेक्ष उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक कि यह स्पष्ट न हो कि सोने और जागने से प्रश्नकर्ता का क्या तात्पर्य है, पुनः यह बात किस प्रसंग में और किस व्यक्ति के सम्बन्ध में पूछी जा रही है । उदाहरण के लिए, सोना कई उद्देश्यों से हो सकता है - शरीर की थकावट मिटाकर स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए सोना अथवा आलस्यवश सोना, इसी प्रकार सोना कई स्थितियों में भी हो सकता है-रात्रि में सोना, दिन में सोना, कक्षा में सोना; पुनः सोनेवाले व्यक्ति कई प्रकार के हो सकते हैं - हिंसक, अत्याचारी और दुष्ट अथवा सज्जन, सदाचारी और सेवाभावी । यहाँ किसलिए, कब और किसका- ये सभी तथ्य सोने या जागने के तात्पर्य के साथ जुड़े हुए हैं, इनका विश्लेषण किये बिना हम निरपेक्ष रूपसे यह नहीं कह सकते है कि सोना अच्छा है या बुरा है। शारीरिक स्फूर्ति के लिए, रात्रि में सोना अच्छा हो सकता है, जबकि आलस्यवश दिन में सोना बुरा हो सकता है । भगवती सूत्र में जयन्ति ने जब महावीर से यह प्रश्न पूछा कि सोना अच्छा है या जागना अच्छा है ? तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों का सोना अच्छा है और कुछ जीवों का जागना अच्छा है, दुराचारी का सोना अच्छा है और सदाचारी का जागना अच्छा है । विभज्यवाद अन्य कुछ नहीं अपितु प्रश्नों या प्रत्ययों के अर्थ (Meaning) का विश्लेषण करके उन्हें सापेक्ष रूप से स्पष्ट करना है । अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध कहते हैं कि विद्वान् (शब्दों, कथनों और प्रत्यय के ) अर्थ (Right-meaning ) और अनर्थ (False meaning) दोनों का ज्ञाता होता है, जो अनर्थ का परित्याग करके अर्थ का ग्रहण करता है, वही अर्थ के सिद्धान्त (अर्थ- अभिसमय) का जानकार पण्डित (दार्शनिक ) कहा जाता है । बुद्ध के उपर्युक्त कथन में समकालीन भाषा दर्शन का उत्स निहित है। जैन परम्परा भी शब्द पर नहीं, उनके अर्थ (meaning) पर बल देती है । तीर्थंकर अर्थ का वक्ता होता है । आज का भाषाविश्लेषण भी प्रत्ययों या शब्दों के अर्थ का विश्लेषण करके उन्हें स्पष्ट करता है तथा आनुभविक सन्दर्भ में उनकी व्याख्या करता है । दार्शनिक आधारों में आंशिक भिन्नता के होते हुए भो पद्धति की दृष्टि से विभज्यवाद और भाषा विश्लेषण में समानता है और इसी आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आज से २५०० वर्ष पूर्व प्रस्तुत महावीर और बुद्ध का विभज्यवाद समकालीन भाषाविश्लेषणवाद का पूर्वज है । १. सुत्तत्तं, भन्ते ! साहू, जागरियतं साहू ? जयंति ! अत्थ एगइयाणं जीवाणं सुत्ततं साहू, अत्थ एगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू | .....अहम्मिया जीवाणं सुत्तत्तं साहू । धम्मिया जीवाणं जागरियत्तं साहू | २. अथो अत्थे अनत्थे च उभमस्स होति कोविदो । अनत्थं परिवज्जेति अत्थं गण्हाति पण्डितो । अत्थाभिसमया धीरो पण्डितो ति पवुच्चतीति ॥ ३. अत्थं भासइ अरहा । —आवश्यक निर्युक्ति, १९२ Jain Education International -भगवतीसूत्र, १२।२ - अङ्गुत्तरनिकाय, Vol. II पृ० ४८ (चतुक्कनिपात, रोहितस्स वग्गो, पञ्हब्याकरणसुत्त) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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