Book Title: Jain Bhasha Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: B L Institute of IndologyPage 22
________________ विषयप्रवेश : विभज्यवाद, समकालीन भाषा-दर्शन का पूर्वरूप महावीर और बुद्ध के समय अनेक दार्शनिक विचारधारायें प्रचलित थीं। उस समय जैनों के अनुसार १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ३२ विनयवादो और ६७ अज्ञानवादी-इस प्रकार ३६३ और बौद्धों के अनुसार ६२ दार्शनिक सम्प्रदाय' प्रचलित थे। बुद्ध और महावीर ने इन सबके दार्शनिक विरोधों को देखा और पाया कि ये सभी दार्शनिक मतवाद दार्शनिक जिज्ञासाओं के एकपक्षीय समाधानों पर खड़े हुए हैं और इसलिए परस्पर एक दूसरे के विरोधी बन गये हैं। उनकी दृष्टि में तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों के एकपक्षीय एवं निरपेक्ष उत्तर ही मिथ्या धारणाओं को जन्म देते हैं । आत्मा नित्य है या अनित्य है ? शरीर और आत्मा भिन्न हैं या अभिन्न ? आदि प्रश्नों का उत्तर जब ऐकान्तिक या निरपेक्ष रूप में दिया जाता है, तो वस्तु-स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन नहीं हो पाता। विश्व की समस्त सत्ताएँ और समग्र घटनाएं अपने आप में एक जटिल तथ्य हैं और जटिल तथ्यों का सम्यक् प्रतिपादन तो विश्लेषण की पद्धति के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए महावीर और बुद्ध ने एक णाली विकसित की, जिसमें दार्शनिक एवं व्यावहारिक जटिल प्रश्नों के उत्तर उन्हें विविध पहलुओं में विश्लेषित कर दिये जाते थे। प्रश्नों को विश्लेषित कर उत्तर देने की यह पद्धति जैन और बौद्ध परम्पराओं में विभज्यवाद के नाम से जानी जाती है। विभज्यवाद एक विश्लेषणवाद (Analytic method) है । प्रश्नों का यह विश्लेषण ही हमें तात्त्विक समस्याओं की सही समझ दे सकता है, यही कारण था कि अनेक सन्दर्भो में बुद्ध ने समकालीन भाषा-विश्लेषकों के समान ही तत्त्व-मीमांसा का प्रत्याख्यान कर तात्त्विक प्रश्नों को आनुभविक स्तर पर ही व्याख्या करना उचित समझा और यह कहा कि जहाँ आनुभविक स्तर पर व्याख्या करना सम्भव नहीं हो, वहाँ मौन रहना ही अधिक श्रेयस्कर है। महावीर ने भी अपने भिक्षुओं को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे तात्विक चर्चा या व्यावहारिक प्रश्नों के समाधान में विभज्यवादी या विश्लेषणात्मक पद्धति ही अपनायें और निरपेक्ष रूप से कोई भी कथन न करें। बुद्ध भी अपने को विभज्यवादी कहते थे। बौद्ध-ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में किसी प्रश्न का उत्तर देने की चार पद्धतियाँ प्रस्तुत की गई हैं-१) एकांशवाद-प्रश्न का एकपक्षीय या निरपेक्ष उत्तर देना, (२) विभज्यवाद-प्रश्न को विभाजित या विश्लेषित करके उसके प्रत्येक पक्ष का सापेक्ष उत्तर देना, (३) प्रतिप्रश्न-प्रश्न का सीधा उत्तर न देकर उस पर प्रतिप्रश्न कर देना और (४) अव्याकृतवाद-प्रश्न को अव्याकरणीय अर्थात् उत्तर के अयोग्य कह देना ।" बुद्ध ने तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों के सन्दर्भ में मुख्यतः अव्याकृत१. सूयगडेण असीयस्स किरियावाइसयस्स, चउरासीईए अकिरिया वाइएणं, सत्तट्ठीए अण्णानिवाईणं, बत्तीसाए वेणइयवाईणं, तिण्ण तिसठ्ठीणं पासंडियतयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविज्जइ। -नन्दिसूत्र, ८४ २. द्वासठिदिट्ठिगतानि"। -देखें, दीघनिकाय, ब्रह्मजालसुत्त -Pali-English Dictionary, P. 156 ३. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा। -सूत्रकृतांग, १११४।२२. ४. विभज्जवादो खो अहमेत्थ माणव; नाहमेत्थ एकंसवादो ।-मज्झिमनिकाय, Vol. II पृ० ४६९ (सुभसत्त) ५. चत्तारिमानि, भिक्खवे, पञ्चब्याकरणानि । कतमानि चत्तारि? अत्थि, भिक्खवे, पञ्हो एकस ब्याकरणीयो; अत्थि, भिक्खवे, पञ्हो विभज्जब्याकरणीयो; अत्थि, भिक्खवे, पत्र्हो पटिपुच्छा व्याकरणीयो; अत्थि, भिक्खवे, पञ्हो ठपनीयो । इमानि खो, भिक्खवे, चत्तारि पञ्हब्याकरणानी ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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