Book Title: Jain Bhasha Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: B L Institute of Indology

Previous | Next

Page 16
________________ विषयप्रवेश : ३ होता है । इन दार्शनिकों के सामने मूलभूत प्रश्न था कि परमतत्त्व आदि की चर्चा करने के पूर्व हम इस बात पर विचार करें कि हमारे ज्ञान की सामर्थ्य क्या है ? हमारे जानने की प्रक्रिया क्या है ? हम किसे जानते हैं अर्थात् हमारे ज्ञान का विषय क्या है ? इस प्रकार इस युग में दार्शनिक विवेचन तत्त्वमीमांसा और ईश्वरमीमांसा से हटकर ज्ञानमीमांसा पर केन्द्रित हो गया । मानवीय ज्ञान के साधन, मानवीय ज्ञान का सीमा क्षेत्र और मानवीय ज्ञान के विषय की चर्चा ही प्रमुख att | यद्यपि यह दुर्भाग्यपूर्ण ही रहा कि इन सारी चर्चाओं की अन्तिम परिणति अज्ञेयवाद और सन्देहवाद के रूप में हुई । पाश्चात्य दर्शन के क्षेत्र में चौथा मोड़ वर्तमान बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में प्रारम्भ होता है। इस युग के दर्शन की मुख्य प्रवृत्ति भाषा - विश्लेषण है । इन दार्शनिकों ने यह माना कि दार्शनिक चिन्तन, विमर्श और विवेचन का आधार भाषा है । जब तक हम भाषा के स्वरूप और शब्दों के अर्थ (meaning) का सम्यक् निर्धारण नहीं कर लेते, तब तक दार्शनिक विवेचनाएँ निरर्थक बनी रहती हैं। क्योंकि हम जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ बोलते हैं और अपने विचारों को जिस रूप में अभिव्यक्त करते हैं अथवा दूसरों के विचारों को जिस रूप में समझते हैं, इन सबका आधार भाषा है । इसलिए सर्वप्रथम हमें भाषा के स्वरूप का तथा उससे होने वाले अर्थ-बोध का विश्लेषण करना होगा । भाषा - विश्लेषण के प्रमुख दार्शनिक विट्गेन्स्टीन का कथन है कि हमारे बहुत से दार्शनिक प्रश्न और तर्कवाक्य इसलिए खड़े होते हैं कि हम अपनी भाषा की प्रकृति को नहीं जानते । अनेक दार्शनिक समस्याएँ केवल इसलिए बनी हुई हैं कि हम भाषा के तार्किक स्वरूप को सम्यक् रूप से नहीं समझ पाये हैं'। यदि हम अपनी भाषा की तार्किक प्रक्रिया को समझ लें, तो अनेक दार्शनिक समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जायेंगी । विट् गेन्स्टीन बलपूर्वक यह भी कहते हैं कि दार्शनिक समस्याएँ तभी उठती हैं, जबकि भाषा अवकाश ग्रहण कर लेती है ।" समकालीन पाश्चात्य दर्शन में आज भाषा - विश्लेषण दार्शनिक चिन्तन की एक प्रमुख विधा बना हुआ है । यद्यपि उपर्युक्त वर्गीकरण का यह अर्थ नहीं कि उन उन युगों में दार्शनिक चिन्तन की अन्य विधाएँ पूर्णतया अनुपस्थिति थीं । ग्रीक और मध्ययुगीन पाश्चात्य दर्शन में भी ज्ञानमीमांसा के साथ-साथ भाषा दर्शन सम्बन्धी प्रश्नों पर कुछ चर्चा अवश्य होती रही है । सुकरात, प्लेटो और अरस्तू ने भाषा-सम्बन्धी दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा की है । मात्र यही नहीं, उन्होंने अनेक दार्शनिक प्रत्ययों (शब्दों) का अर्थ - विश्लेषण भी किया । उदाहरणार्थं जब सुकरात - न्याय क्या है ? ज्ञान क्या है ? शुभ क्या है ? इन प्रश्नों को उपस्थित करता है तो उसका मुख्य उद्देश्य इन दार्शनिक प्रत्ययों के अर्थ का विश्लेषण करना ही है । इसीप्रकार प्लेटो जब यह कहता है "अनेक विशेष वस्तुओं का एक सामान्य नाम होता है, तो हम मानते हैं कि उनमें नाम के अनुरूप एक 1. I believe, that the reason why problems are posed is that the logic of our language is misunderstood. -Tractatus Logico Philosophicus.-Preface P. 3 2. For philosophical problems arise when language goes on holiday. Jain Education International -Philosophical Investigation, 38. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124