Book Title: Jain Bhanu Pratham Bhag
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Jaswantrai Jaini

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Page 8
________________ ( ४ ) लिखना प्रारम्भ किया और स्यार कर दिया, फिर भी चाहा कि इस को प्रकट न करना ही श्रेय है परन्तु हमारे ढूंढकभाई मि. बाडीलालवत् अनेक प्रकार के असन्तोषकारक और पूरे २ गप्पाष्टक प्रकट करते रहे । इस से तंग हो कर लाचार हम की भी मुनिमहाराजके परिश्रम को सफल करना पड़ा। हम नहीं चाहते थे कि अबला की थोथी पोथी के खण्डनार्थ ही मुनि जी अपना सवला विद्वत्ता को प्रकट करते, परन्तु अबला की कृति में कई जीवों को अनुपकार और कुगति का कारण हो जाने का भय है क्योंकि अबलाने सारी पोथी में कई प्रकार के स्त्रीचरित्र खेल भोले भद्रिक जीवों को अपने मायावी जाल में फंसाने का पूरा २ उद्यम किया है इसलिये उपकारदृष्टि से मुनिजी कृत खण्डन को जैनभानु नाम से छपवा कर प्रकट करना पड़ा है । यद्यपि सम्पूर्ण पुस्तक को छावा देना उचित था और चाहा था कि संपूर्ण ही छपवाई जावे; विभाग न किये जावें, परन्तु प्रायः लोगों की मांग अधिक आने से और सम्पूर्ण पुस्तक के छपने में प्रायः देर हो जाने के भय से अधुना केवल प्रथम भाग छपवा कर प्रकट किया जाता है और प्रार्थना की जाती है कि याद शीघ्रता के कारण दृष्टिदोष से वा छापे की गलती से कहीं कोई अशुद्धि रह गई मालूम हो जावें तो शुद्ध कर लेवें और कृपया खबर कर देवें जिस से पुनराशत्ति में शुद्धि की जावे इति शुभम् ॥ आप श्रीजैनश्वेताम्बरसंघ का दास, जसवन्तराय जैनी, लाहौर (पंजाब)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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