Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनघालवोधक
६. कालविभाग,
--::-- सृष्टि अनादि है। इसका कर्ता वा हा कोई नहीं है परन्तु भिन्न भिन्न कालमें इसका परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन भी दो प्रकारसे होता है अर्थात् एक तौ वृद्धिरूप एक ह्रासम्प। जिसका नाम उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल है । उत्सर्पणीकाल क्रमसे उन्नतिरूप (विकाशरूप ) होता है अवस. पणीकाल ह्रासरूप (अवनतिरूप) होता है। उत्सर्पणीकालमें जीवोंकी आयु कायादि क्रम २ से एक खासहद तक बढते रहते है और श्रवसर्पणीकालमें क्रमसे घटते २ एक हदतक घट जाते हैं। प्रत्येक काल दश कोडाकोडी सागरका होता है सागरकी गिनती अंकोंसे नहिं कह सकते इस लिये इस संख्याका नाम असंख्यातवर्ष है । दानो कालोंको मिलाकर वीस कोडाकोड़ी सागरका एक कल्प काल होता है।
प्रत्येक उत्सर्पिणीकालके छह छह विभाग माने गये हैं। अवनतिरूप अवसर्पियीकालके पहिले विभागका नाम सुपमा सुषमा काल है यह समय चार कोडाकोड़ी सागरका होता है। इस समयके मनुष्योंकी आयु तीन पल्यकी होती है । शरीरकी उंचाई तीन कोशकी (छह हजार धनुष या १२००० गजको) होती है। ये मनुष्य वडे ही सुंदर सरल चित्तके होते हैं। भोजन की इच्छा तीन दिन बाद होती है। और इच्छा होते ही कल्प वृत्तोंले प्राप्त हुवा भोजन वेरकी बरावर करते हैं । इनके मल