Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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'जेनबालबोधक
५. पूजाधिकार ।
सवैया ३१ मात्रा |
लोपै दुरित हरै दुख संकट, यापै रोग रहित नितदेह | पुण्य भंडार भरे जस प्रगटै, मुकतिपंथसों करें सनेह || रचै सुहाग देय शोभा जग, परभव पहुंचावत सुर गेह । कुगति वंध दलमलहि 'बनारस' वीतराग पूजाफल येह ॥ १ ॥
अर्थ - वीतराग भगवानकी पूजा पापको हरती है, दुखसंकटको दूर करती है हमेशह रोगरहित देहकरती है, पुरायके भंडार भरती है, यशको प्रगट करती है, मोक्षमार्ग में प्रीति करवाती है, सौभाग्य रचती व जगतमें शोभा देती है, परभव में स्वर्ग
जाती है और कुगतिबंधको नष्ट करदेती है ॥ १ ॥
देवलोक ताकी घर प्रांगन, राज रिद्ध सेवहिं तस पाय । ताके तन सौभाग्य प्रादिगुन, केलि विलास करें नित आय ॥ सो नर तुरित तरै भवसागर, निर्मल होय मोक्षपद पाय । द्रव्य भाव विधिसहित 'वनारसि' जो जिनवर पूँजे मन लाय ॥ जो कोई द्रव्य से भाव विधि सहित मन लगाकर जिनेंद्रभगचानको पूजता है उसके लिये स्वर्ग तौ अपने घर के आंगनकी समान होजाता है और राजसंपदा उसके चरण पूजती है उस के शरीर में सौभाग्य आदि गुण नित्यकेलिये विलास करते रहते हैं और वह मनुष्य कर्ममलरहित होय शीघ्री भवसागर से तिर करके मोक्षपद पाजाता है ॥ २ ॥