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158... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में
जाता है। यहाँ कूर्म मुद्रा से तात्पर्य इष्ट देव की स्मृति है ।
कूर्म की सर्वाधिक खासियत यह है कि वह अपने अंगोपांगों का संकोचन करके रहता है अतः यह मुद्रा इन्द्रिय संयम की सूचक है। वैदिक परम्परा में भगवान विष्णु के प्रथम पाँच (पशु) अवतार की सूचक भी है।
योग परम्परा में इसे आराधकों द्वारा ग्रहण की जाती है । गायत्री जाप से पूर्व की जाने वाली 24 मुद्राओं में से एक है। यह कैन्सर जैसी भयंकर बीमारी में लाभकारी है।
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कर्म मुद्रा
विधि
इस मुद्रा में दायीं हथेली नीचे की तरफ (अर्थात हथेली का पृष्ठ भाग भूमि की ओर रहे), तर्जनी एवं कनिष्ठिका बाहर सीधी फैली हुई, मध्यमा और अनामिका हथेली के अन्दर मुड़ी हुई रहें । बायीं हथेली दायीं हथेली के ऊपर की तरफ मुख किये हुए रहे, तर्जनी को मध्यभाग की तरफ फैलाएं जो भूमि से समानान्तर हो, अंगूठा तर्जनी से 90° कोण की दूरी पर स्थित रहें, मध्यमा और अनामिका हथेली के भीतर मुड़ी हुई रहें ।