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पूजोपासना आदि में प्रचलित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...189 इस बीज मुद्रा का उद्देश्य चेतना के मूल स्वभाव की उपलब्धि है। विधि
किसी भी योग्य आसन में बैठ जाएँ। तदनन्तर दोनों हाथों को अर्धचन्द्र के आकार में परिवर्तित कर दोनों तर्जनी अंगुलियों एवं दोनों अंगूठों को परस्पर मिलाएँ। फिर उनके नीचे के भाग में दोनों मध्यमा अंगुलियों को दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों से जोड़ें। फिर सबसे नीचे अनामिका अंगुलियों को लगाने पर बीज मुद्रा बनती है।
निर्देश- 1. इस मुद्रा का अभ्यास ध्यानोपयोगी आसन में ही करें। 2. बीज मुद्रा को प्रारम्भ में यथाशक्ति कितनी भी अवधि तक कर सकते हैं, किन्तु थोड़े दिनों के पश्चात 48 मिनट का समय पूर्ण होना चाहिए। 3. इस मुद्रा सिद्धि के लिए दिन अथवा रात्रि का कोई भी समय निश्चित कर सकते हैं। 4. पूज्य पुरुषों का कहना है कि ये मुद्राएँ प्रसंग विशेष पर ही की जाती हैं। योगी पुरुष ही इन मुद्राओं की साधना करते हैं। सामान्य औषधोपचार के रूप में इसका प्रयोग नहींवत होता है। सुपरिणाम ___ यह समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाली अति महत्त्वपूर्ण मुद्रा है। इस मुद्रा में अग्नि तत्त्व (अंगूठा) और वायु तत्त्व (तर्जनी) का संयोग हुआ है। इन दोनों तत्त्वों के मिलने से वायु सम्बन्धी तकलीफों में राहत मिलती है, गैस की विकृतियाँ दूर होती हैं, उदर जनित रोगों में भी फायदा होता है। इस मुद्रा में आकाश तत्त्व (मध्यमा) और जल तत्त्व (कनिष्ठिका) का संयोजन होने से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होते हैं और संतुलित व्यक्तित्व का विकास होता है। ___ मानसिक तौर पर एकाग्रता का विकास होता है, मस्तिष्क के स्नायु शक्तिशाली बनते हैं और मनः स्थैर्य में वृद्धि होती है।
आध्यात्मिक तौर पर सम्यक विचारों का आविर्भाव होता है जिससे साध्य उपलब्धि का मार्ग सहज बनता है। 2. लेलिहा मुद्रा
संस्कृत के लिह् धातु से 'लेलिहा' शब्द की रचना हुई है। लेलिहा साँप को कहते हैं। इस मुद्रा का दूसरा नाम लेलिहान भी है जिसका एक अर्थ शिव का