Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 17
________________ - अंचलगच्छ की पट्टावलि में 1444 ग्रन्थों के कर्ता कहा है। विजयलक्ष्मी सूरि ने “उपदेश प्रासाद' में 1444 ग्रन्थों के प्रणेता कहा हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि का समय :___जिन विजयजी ने हरिभद्रसूरि को ८वीं शताब्दी के विद्वान् माने है और ८वीं शताब्दी के उतरार्ध में विशेषतः उनका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए “कुवलयमाला” के प्रशस्ति पथ भी साक्षी है आयरियवीरभद्दो अहावरो कप्परुक्खेव्व सो सिद्धन्तेण गुरू जुत्तिसत्थेहिं जस्स हरिभद्दो / ___बहुगंथ स्थवित्त्थरपत्थारियपयडसव्वत्थो। आचार्य हरिभद्र का वैशिष्ट्य : आर्यदेश में अहिंसा की आधारशिला पर सामाजिक चारित्रप्रसाद के निर्माण में यदि किसी के महत्वपूर्ण सहयोग का उल्लेख करना हो तो वह भगवान की परंपरा में होने वाले जैनाचार्य श्रमणवर्ग का हो सकता है ऐसे ही श्रमणवर्य आचार्य श्री हरिभद्र के जीवन का विविध वैशिष्ट्य हमारे सामने अनेक रूपों में प्रस्तुत होता है। . . क्रान्तिकारी आचार्य हरिभद्र : न मे वीरे पक्षपातो न द्वेष कपिलादिषु। __ युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रहः॥ विश्व के प्रांगण में अनेक दर्शनकार अपनी-अपनी मान्यताओं को लेकर अनेक प्रकार के विवादो में विचलित बन रहे थे ऐसे समय में आचार्य श्री हरिभद्र ने जगत के समक्ष उन दार्शनिक सम्प्रदायगत विवादों को सुलझाने हेतु अपनी दार्शनिक सीमा का अतिक्रमण कर विवादों को समाहित किया। ___ अनेकान्तवाद के माध्यम से उन्हें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। दर्शन जगत में अपनी सीमा से ऊपर उठकर चिन्तन देने के कारण उन्हें क्रान्तिकारी आचार्य के रुप में देखा जाता समन्वय परख दार्शनिक : आचार्य हरिभद्र ने समन्वयवादी बनकर अपने ग्रन्थों में अन्यदर्शन के मत को भी बडे ही आदर से समुल्लेखित किया, उन्होंने “योगशतक' में योग की व्याख्या करते हुए कहा है कि - तल्लक्खणयोगाओ चित्तवित्तीणिरोहओ चेव। तह कुसलपवितीए मोक्खेण य जोयणाओ ति // VIIIVA 3 VIIIIIA

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