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अनुभूत जगत् का अस्तित्व न हो तो स्वप्न की अवस्थाएं संभव ही न हो सकतीं। स्वप्नों की विविधता उनके कारणों की विविधता पर आश्रित है। यदि यथार्थसत्ता का अस्तित्व न हो तो सत्य तथा भ्रांति में भेद न के बराबर होता है और इस तथ्य का कोई स्पष्टीकरण संभव न होता कि प्रत्यक्ष ज्ञान में हमें स्वेच्छाचार प्राप्त नहीं है और नैयायिक उस मत से भी संतुष्ट नहीं है, जो पदार्थों को स्वयंसिद्ध, यद्यपि क्षणिक स्वभाव वाले मानते हैं। यदि पदार्थ हमारे ज्ञान के कारण है तो उनका अस्तित्व कार्य अर्थात ज्ञान से पूर्व होना आवश्यक है, किन्त पदार्थों की क्षणिकता के मत से जिस पदार्थ ने ज्ञान उत्पन्न किया. उसका दसरे ही क्षण में, जबकि उसका प्रत्यक्ष होता है, अस्तित्व नहीं रहता। ऐसे मत को किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान तो केवल उस पदार्थ का होता है. जो कि उसी क्षण में विद्यमान हो। ऐसा तर्क उपस्थित करना कि पदार्थ का तिरोधान प्रत्यक्ष ज्ञान का समकालीन है, निःसार है क्योंकि हम वर्तमान काल में पदार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं न कि भूतकाल में पदार्थ का। इस प्रकार अनुमान तक भी असंभव हो जाएगा। फिर कार्य और कारण के आधान और आधेय के रूप में परस्पर सम्बद्ध होने के कारण दोनों का एक ही काल में विद्यमान रहना आवश्यक है। जो पदार्थ वास्तविक रूप से है उसका मौलिक स्वरूप उस पदार्थ से, जिसकी केवल कल्पना की जाती है, इस बात में भिन्न है कि उसकी सत्ता अनुभव के हर सम्बन्ध से स्वतन्त्र है। जिस पदार्थ की सत्ता है, वह उस काल में भी है जबकि हमें उसका अनुभव नहीं होता है। अनुभव एकपक्षीय निर्भरता का सम्बन्ध है। अनुभव की विद्यमानता के लिए पदार्थों का रहना आवश्यक है; किन्तु पदार्थों की सत्ता के लिए किसी अनुभव का होना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार नैयायिक इस परिणाम पर पहुंचता है कि हमारे विचार, द्रव्य की इच्छा एवं प्रयोजन से स्वतन्त्र, तथ्यों के वस्तुपरक स्तर (मानदण्ड) के अनुसार होते हैं। पदार्थों की सत्ता प्रमाणों पर निर्भर नहीं करती, यद्यपि बोध के विषय के रूप में उनका अस्तित्व बिल्कुल प्रमाणों की क्रिया पर निर्भर करता है।
प्रमाणों की प्रमाण संज्ञा इसलिए है कि वे हमें प्रमा (सत्य) प्राप्त कराते हैं। उदयनाचार्य ने अपने 'तात्पर्य परिशुद्धि' नामक ग्रन्थ में कहा है कि "पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्रमा' है और इस प्रकार के ज्ञान के साधन को प्रमाण कहते हैं।" पदार्थों का वास्तविक स्वरूप अर्थात् तत्त्व क्या है? यह जो पदार्थ है, उसकी विद्यमानता और जो पदार्थ नहीं है उसका अभाव के अतिरिक्त
और कुछ नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी पदार्थ का, जो है, एक विद्यमान पदार्थ के रूप में ज्ञान प्राप्त किया जाता है अर्थात उसे उसके यथार्थ रूप में जाना जाता है (यथाभ्रम) और उससे विरोधी रूप में नहीं जाना जाता (अविपरीतम्) तो इस प्रकार जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वह उस पदार्थ का यथार्थ स्वरूप है। इसी प्रकार दूसरी ओर जब एक असत् (अभाव रूप) का अभावात्मक अनुभव किया जाता है अर्थात् जो पदार्थ नहीं है और भावात्मक
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