Book Title: Gyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 14
________________ का प्रमा अथवा सत्यवधान करे कि उस का दावा करते हैं। यह ज्ञान के सिद्धान्त का प्रारम्भ जिस तथ्य से होता है, वह यह नहीं है कि हमें ज्ञान है बल्कि यह है कि हम उसका दावा करते हैं। यह प्रमाणवादी का कार्य है कि वह अनुसंधान करे कि उस दावे को कहां तक निभाया जा सकता है। प्रमा अथवा सत्य के सिद्धान्त में नैय्यायिक जिज्ञासा करना आरम्भ करता है कि कहां तक हमारा दावा तर्क की कसौटी पर न्यायोचित ठहर सकता है। वह यह जताने का प्रयत्न करता है कि चार प्रमाणों के द्वारा जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, वह प्रमाणिक है अथवा उसकी प्राकृतिक आवश्यकता है। न्यायशास्त्र द्वारा प्रतिपादित ज्ञान के सिद्धान्त का माध्यमिक मत के संशयवाद के साथ विरोध है। संशयवादी का कहना है कि हमें पदार्थों के तत्त्व का ज्ञान नहीं होता और हमारा विचार परस्पर इतना विरोधी है कि उसे यथार्थ नहीं समझ सकते। इस मत के विरोध में वात्स्यायन का कहना यह है कि यदि माध्यमिक को इतना निश्चय है कि किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं है, तो उसे अपने ही मत के अनुसार कम से कम इतनी निश्चितता तो स्वीकार है ही और इस प्रकार उसके मत का अपने से ही खण्डन हो जाता है और यदि किसी पदार्थ की सत्ता नहीं इसे सिद्ध करने के लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं है और यह उसकी केवल अयुक्तियुक्त कल्पना है तो इसके विपरीत मत को स्वीकार किया जा सकता है और फिर जो प्रमाणों की मान्यता को अस्वीकार करता है, वह या तो किसी प्रमाण के आधार पर ऐसा कर सकता है या बिना किसी आधार के ऐसा कर सकता है। यदि पिछली बात है तो तर्क करना निरर्थक है और यदि पहली बात है तो वह प्रमाणों की मान्यता को स्वीकार कर ही लेता है। मौलिक संशयवाद क्रियात्मक नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को विचार प्रारम्भ करते ही ज्ञान के सिद्धान्तों को स्वीकार करना पड़ता है और जो विचार की क्रिया को स्वीकार करता है, उसे यथार्थ के जगत् को भी स्वीकार करना ही होता है, क्योंकि विचार तथा यथार्थ सत्ता एक-दूसरे पर आश्रित है। वात्स्यायन का कहना है कि यदि विचार द्वारा पदाथों का विश्लेषण संभव है तो यह कहना अयुक्तियुक्त होगा कि पदार्थों का वास्तविक प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता है। और यदि दूसरे पक्ष में, पदार्थों की वास्तविक सत्ता का ज्ञान नहीं होता तो विचार द्वारा पदार्थों का विश्लेषण संभव नहीं होता। इस प्रकार यह कहना कि विचार द्वारा पदार्थों का विश्लेषण होता है किन्तु पदार्थों की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान नहीं होता है। इन दोनों वक्तव्यों में परस्पर विरोध है। उद्योतकर इसे इस प्रकार रखते हैं कि “यदि विचार द्वारा पदार्थों की सत्ता नहीं है तो विचार द्वारा पदार्थों का विश्लेषण संभव नहीं है। नैयायिकों का कहना है कि ज्ञान यथार्थ सत्ता का सूचक है।" वात्स्यायन ने विज्ञानवाद के इस मत पर आक्षेप किया है कि अनुभूत पदार्थ साक्षात्कार के सूत्रमात्र हैं। स्वपन में देखे गए पदार्थ यथार्थ नहीं होते, क्योंकि जागरिकतावस्था में हमें उनका अनुभव नहीं होता है। यदि इन्द्रियग्राह्य 14

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