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विषयानुक्रमणिका
किया । राजपुरोमें कुछ दिन रहनेके बाद जीवन्धरने अपने मामा गोविन्दराजके पास जानेका विचार किया और गन्धोत्कटसे आज्ञा लेकर विदेह देशको ओर प्रस्थान कर दिया। गोविन्दरामने अपने भानजेका आगमन सुन बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और बड़े वैभवके साथ उनका धरणीतिलक नामक राजधानी में प्रवेश कराया ।
२३३ - २४० धरणीतिलक राजधानीके लोगोंने जीवन्धरके प्रति बहुत भारी अनुराग प्रकट किया । इसी बीच गोविन्द महाराजके पास काष्ठांपारका पत्र आया कि सत्यन्धर के मरणके विषय में राजपुरीकी जनता मुझे व्यर्थ ही कलंकित करती हैं। एक उन्मत्त हाथीके द्वारा यह कुकृत्य हुआ था । आप हमारे मित्र हैं अतः राजपुरी आकर हमारे इस कलंकका परिमार्जन करें। इस पत्रका गोविन्द महाराजकी सभा में वाचन हुआ थोरू राजपुरीके पहुँचनेका यह अति निमन्त्रण स्वीकृत कर लिया गया। गोविन्द महाराज अपने भानजे जीवन्धरको साथ ले युद्धको पूरी तैयारी के साथ हेमांगद देशकी ओर चल पड़े।
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२४१-२४५. काष्ठांगारने बड़े सम्मान के साथ गोविन्द महाराजकी अगवानी की। वहाँ जाकर गोविन्द महाराजने अपनी पुत्री लक्ष्मणा के स्वयंवर करनेका विचार किया और इस स्वयंवरके व्याज से देश-देशके राजाखौंको बुलाकर राजपुरी में एकत्रित कर लिया। स्वयंवर में कन्या प्राप्तिको शर्त चन्द्रक यन्त्र से नियन्त्रित वराहोंके तीन पुतलोंको बाणसे एक साथ वेध देना था। साढ़े छह दिन तक स्वयंवर मण्डपमें राजकुमारोंके उद्योग चलते रहे पर कोई भी इस शर्तको पूर्ण करने में समर्थ नहीं हो सका। अन्त में जीवन्धर कुमारने शतंके अनुसार एक ही बाणके द्वारा वराहोंके तीनों पुतलोंको वेधकर नीचे गिरा दिया।
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२४६ - २४९. इस कार्यसे जीवम्बर कुमारका शौर्य वृद्धिगत हो गया। इसी अवसरपर गोविन्द महाराजने सब राजाओंके सामने प्रकट किया कि यह जीवम्वर राजा सत्यन्धरका पुत्र है । काष्ठागारने राजद्रोह कर छलसे इनका घात किया था। गोविन्दराजकी इस घोषणाको सुनकर काष्ठांगार को लेने के देने पड़ गये । सब राजांबोंने जीवन्बरके प्रति बड़ा सम्मान प्रकट किया और पद्मास्य आदि जीवन्धरके मित्रोंने काष्ठाङ्गारसे राज्य परित्यागका आग्रह किया । राज्य परित्याग न कर वह युद्धके लिए तैयार हो गया। निकृष्ट राजा काष्ठांगारकी ओर और विशिष्ट राजा जीवन्वरकी ओर हो गये । तदनन्तर भयंकर युद्ध हुआ और उसमें जीवन्धर ने काष्ठागारको मार डाला । जीवन्धरकी विजय पताका फहरा उठी। उन्होंने गोविन्द महाराज तथा अन्य राजाओंको प्रसन्न किया ।
२५९ - २६३. प्रजा में सुमंगलकी घोषणा की गयी। लक्ष्मणाके विवाहको तैयारियाँ होने लगीं । माता विजयाका हृदय अपार आनन्द में निमग्न हो रहा था। वह बड़ी लगनके साथ विवाहकी
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२५० - २५८. तदनन्तर जीवन्धरने बड़े वैभवके साथ राजपुरी में प्रवेश किया। सर्व प्रथम जिनालयमें जाकर भगवान् जिनेन्द्र के दर्शन किये। उनका महाभिषेक कराया । यश्चकों को मनचाहा दान दिया। उसी समय सुदने आकर जीवन्धर कुमारको सिंहासनारूढ कर उनका राज्याभिषेक कराया । तत्पश्चात् जयलक्ष्मी नामक हस्तिदीपर सवार हो राजमार्गसे नगरी में परिभ्रमण कर उन्होंने राजभवन में प्रवेश किया। जीवन्धरके दर्शन के लिए नगरीकी समस्त स्त्रिय उमड़ पड़ीं। उन्होंने काष्ठांगारके अन्तःपुरके लोगों की रक्षा की जाये, उन्हें किसी प्रकारका कष्ट न दिया जाये यह घोषणा की तथा अन्य कैदियोंको बन्धन से मुक्त कराया । गन्धोत्कटको राजश्रेष्ठीका पद दिया, नन्दायको युबराज बनाया और पद्मास्य आदिको महामन्त्री आदिके पद दिये तथा बारह वर्ष तक के लिए लगान माफ कर दिया।
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