Book Title: Dravyanuyoga Part 3
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 15
________________ अनुयोज की अपूर्व यात्रा श्री विनय मुनि 'वागीश' श्रुतज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसे केवलज्ञान के समकक्ष माना गया है। इसके चौदह भेदोपभेदों में सम्यक् श्रुत एक प्रमुख भेद है, जो द्वादशांग गणिपिटक रूप है। द्वादशांग का ज्ञान सम्यक्त्व विशुद्धि, वैराग्य की वृद्धि एवं चारित्र की शुद्धि का प्रमुख हेतु है। आगमों का अभ्यास किए बिना न आत्म-विशुद्धि होती है और न आत्मा की सिद्धि होती है। इस प्रकार सतत चिन्तन-मनन से गुरुदेव के मन में यह भावना प्रादुर्भूत हुई कि "आगमों के स्वाध्याय की परम्परा परिपुष्ट हो” यही चिन्तन अनुयोगों के शुभारम्भ में निमित्त बना। अनुयोग संकलन का कार्य प्रारम्भ हुआ । पाठकों को सर्वप्रथम पूज्य गुरुदेवश्री के वैराग्य काल का संक्षिप्त विवरण बता देना चाहता हूँ। पूज्य गुरुदेव ७ वर्ष की छोटी उम्र में वैराग्य अवस्था में आये। पीह शाहपुरा सरवाड़ आदि में प्रारम्भिक अध्ययन के बाद न्याय - साहित्य - व्याकरण-कोश आदि का अध्ययन भी किया, १८ वर्ष की वय होने पर सांडेराव में वैशाख सुदी ६, संवत् १९८८ को पूज्य गुरुदेव श्री फतेहचन्द जी म. पूज्य श्री प्रतापचन्द जी म. के पास आपकी दीक्षा हुई। उस समय पूज्य मरुधरकेसरी जी म., स्वामी जी श्री छगनलाल जी म., स्वामी जी श्री चाँदमल जी म., पूज्य श्री शार्दूलसिंह जी म. आदि अनेक मुनिराज भी विराजमान थे। आपका युवाचार्य श्री मधुकर जी म. के साथ अगाध स्नेह था। दीक्षा के पश्चात् युवाचार्यश्री जी ने एवं आपने अनेक आगमों का अध्ययन किया। पं. शोभाचन्द जी भारिल्ल से जैन न्याय ग्रन्थों का अध्ययन किया। २५ वर्ष की उम्र में पं. बेचरदास जी के पास पाली में भगवतीसूत्र व पण्णवणासूत्र की टीका पढ़ी, क्योंकि सर्वप्रथम आगमों का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान से ही श्रद्धा स्थिर होती है, मन में वैराग्य वृत्ति सुदृढ़ होती है। कर्म क्या है? आत्मा क्या है ? कर्म और आत्मा का संबंध कैसे होता है ? आस्रव व संवर क्या है ? शुभ-अशुभ क्या है ? आदि का विवेक ज्ञान से ही होता है। ज्ञान होने पर ही क्रिया सार्थक होती है। शास्त्र में 'पढमं नाणं तओ दया' कहा है तो ज्ञान का मूल आधार आगम है, अतः सर्वप्रथम आगम ज्ञान होना चाहिए फिर अन्य दर्शनों का, अन्यान्य विषयों का भी ज्ञान हो किन्तु आगम ज्ञान की उपेक्षा करके अन्य विषयों का ज्ञान कभी-कभी श्रद्धा और चारित्र से विचलित भी कर देता है इसलिए ज्ञान व अध्ययन जो भी हो उसका लक्ष्य आगम ज्ञान को सुदृढ़ व सुस्थिर करना हो तभी हमारी ज्ञान साधना सार्थक हो सकती है। आगम ज्ञान का अर्थ सिर्फ आगमों के पाठ या अर्थ का बोध मात्र ही नहीं, अपितु उसका गम्भीर ज्ञान होना चाहिए। यदि आगमों का ज्ञान विशद हो तो वह वक्ता भी अपने प्रवचन को प्रभावशाली और रुचिकर बना सकता है। विवेचन की क्षमता, विश्लेषण की योग्यता आगम अध्ययन से आती है किन्तु सामान्य साहित्य से नहीं । गम्भीर विवेचन स्थायी असर करता है और आज के बुद्धिवादी लोगों को प्रभावित करने में अधिक सक्षम है। आगम ज्ञान में परिपक्वता और व्यापकता अगर आये तो वह स्वतः ही प्रवचन प्रश्नोत्तर द्वारा लोक भोग्य और लोक रुचि को सन्तुष्ट करने में समर्थ हो सकता है। उक्त विचारों से ही आपश्री की आगम ज्ञान की रुचि दिन-प्रतिदिन बढ़ती रही। आपकी २७-२८ वर्ष की उम्र थी, उसी समय 'श्रमण' मासिक में एक जर्मन विद्वान् का लेख पढ़ा, उसने लिखा कि "जैन आगमों में आत्म-विज्ञान के साथ-साथ अणु-विज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि के विषय में बहुत ही सामग्री भरी है किन्तु उनका कोई ऐसा संस्करण नहीं है कि जिसे पढ़कर उस विषय का ज्ञान हो सके।" उक्त लेख पढ़कर पूज्य गुरुदेव को आगमों का आधुनिक ढंग से सम्पादन करने का संकल्प जगा । आगमों के शुद्ध संस्करण निकालने का प्रयत्न प्रारम्भ हुआ । आपश्री की यह उत्कृष्ट भावना रहती है कि “आत्म-जिज्ञासु साधक आगमों का अधिक से अधिक स्वाध्याय करें तथा प्राकृत भाषा से ही अर्थ समझने में सक्षम बनें।" इसके लिए पूज्य गुरुदेव ने आगमों के मूल पाठों का हिन्दी शीर्षकों सहित संस्करण तैयार किया। पाठों को व्यवस्थित करना, सहज रूप से समझ सके ऐसा सरल बनाना, पदच्छेद करना, छोटे-छोटे पैराग्राफ बनाना आदि कार्य प्रारम्भ किये। सर्वप्रथम मूल सुत्ताणि का सम्पादन किया। वर्धमान वाणी प्रचारक कार्यालय लाडपुरा से प्रकाशन हुआ। वह बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ उस कार्य को देखकर पं. श्री फूलचन्द जी म. 'पुप्फभिक्खू' बहुत प्रभावित हुए और उस शैली को समझकर बम्बई निर्णय सागर में सुत्तागमे २ भागों में छपाया, परन्तु उन्होंने अनेक जगह अपनी मान्यतानुसार पाठों में परिवर्तन कर दिया व पदच्छेद आदि नहीं किये जिससे पाठकों के लिए विशेष लाभकारी सिद्ध नहीं हुआ। ३० वर्ष की छोटी उम्र में ही आपनी के अन्त करण में आगमों को अनुयोग शैली से वर्गीकरण करके शोधार्थियों व जिज्ञासुओं के लिए सुलभ बनाने की तीव्र भावना जाग्रत हुई। यह बहुत ही श्रम-साध्य एवं समूह-साध्य कार्य है यह जानते हुए भी उसमें संलग्न हो गये, आपश्री में अध्यवसाय की दृढ़ता, आगमों के प्रति अनन्य श्रद्धा और लोकोपकार की भावना प्रबल थी अतएव आपश्री अकेले ही अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर चल पड़े। अनुयोग वर्गीकरण से बहुत बड़ा लाभ यह है कि आगम का कौन-सा विषय किस विषय से सम्बन्धित है यह स्पष्ट रूपरेखा सामने आ जाती है। यह जैनागमों का कम्प्यूटर है। हमारे विद्वान् आचार्यों ने इस ओर बहुत कम ध्यान दिया, यद्यपि परिश्रम करना सरल नहीं था फिर भी पूज्य गुरुदेव ने दृढ़ संकल्प कर लिया-अनजान राह पर चल अकेले चल '' ( १० )

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