Book Title: Dravyanuyoga Part 3
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 14
________________ प्राक्कथन -आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि श्रमणसंघ के वरिष्ठ विद्वान उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. 'कमल' द्वारा सम्पादित द्रव्यानुयोग वास्तव में एक महासागर का मन्थन कर प्राप्त किया हुआ श्रुतज्ञान का अमृत घट कहा जा सकता है। तीनों भागों में निबद्ध यह ग्रन्थ स्वयं भी ज्ञान का महाकोष जैसा है। इसमें षड्द्रव्यों के भेद-उपभेद, उनकी विविध स्थितियाँ और मुख्यतः जीव-अजीव से सम्बद्ध अनेकानेक विषय गुम्फित हैं। जैन आगमों में जहाँ-तहाँ इन विषयों का वर्णन, संक्षेप और विस्तार में जो भी उपलब्ध है उसे मुनिश्री ने संकलित कर एकत्रित किया है और फिर विषय क्रम से नियोजित कर उपविषयों तथा विभिन्न शीर्षकों में विभक्त करके हिन्दी भावानुवाद के साथ प्रस्तुत किया है। इन तीनों भागों का विहंगम अवलोकन करने पर स्पष्ट पता चलता है कि यह एक अत्यन्त दुष्कर एवं श्रम-साध्य कार्य किसी जाग्रत-प्रज्ञाशील मनस्वी का ही चमत्कार है। किसी भी कार्य की सम्पन्नता के लिए ध्येय, निष्ठा और दृढ़ अध्यवसाय की अपेक्षा रहती है। साथ ही जीवन को उस कार्य के प्रति समर्पित कर देना होता है। उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. 'कमल' के इस कार्य ने यह सिद्ध कर दिया है कि उन्होंने जैन श्रुतज्ञान के क्षेत्र में वह अधूरा कार्य सम्पन्न किया है, जिसका बीज-वपन आज से लगभग २१७५ वर्ष पूर्व युगप्रधान आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने किया था। ___आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने आगमों के अध्ययन को सुगम बनाने और श्रुतज्ञान को सरलतापूर्वक ग्रहण करने की दृष्टि से अनुयोग वर्गीकरण की एक शैली सुनिश्चित की थी और उस पर व्यापक परिश्रम भी किया था। उसी रूपरेखा को आधार बनाकर मुनिश्री ने अपनी अनुभवी बहुश्रुत-दृष्टि से इस कार्य को व्यापक रूप में प्रस्तुत किया है। इस कार्य में मुनिश्री ने जीवन के ५० महत्त्वपूर्ण वर्ष खपाये हैं, परन्तु मैं इस ५० वर्ष के कार्य को ५00 वर्ष के सुदीर्घ श्रम के रूप में आँकता हूँ। दो हजार वर्ष के पश्चात् अनुयोगों का एक सुव्यवस्थित रूप हमारे सामने आया है और वह भी श्रमणसंघ के एक वरिष्ठ उपाध्यायश्री के द्वारा; इस बात का मुझे हर्ष है, आल्हाद है और सम्पूर्ण स्थानकवासी जैन समाज के लिए गौरवास्पद है। मैं तो कहूँगा समस्त जैन समाज के लिए यह प्रसन्नता और गरिमा का विषय बनेगा। द्रव्यानुयोग की छपी सामग्री का अवलोकन करने पर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि इसके स्वाध्याय से कर्म, क्रिया, लेश्या, आम्रव, जन्म-मरण, पुद्गल सम्बन्धी इतनी महत्त्वपूर्ण और जीवनोपयोगी सामग्री मिलती है कि मन करता है कि पढ़ते ही जायें। इस ज्ञानार्णव में डुकियाँ लगाते रहें। विहंगम अवलोकन करते हुए मैंने एक बार आम्नव अध्ययन के पृष्ठ पलटे। पाँच आम्नवों का वर्णन पढ़ने लगा। पाँच आम्नव द्वारों का विस्तृत वर्णन प्रश्नव्याकरणसूत्र में उपलब्ध है। इन संवर और आम्नव द्वारों का वर्णन, हिंसा, असत्य आदि आम्नवों का फल-विपाक पढ़ने पर रोमांच हो उठता है। हिंसा एवं असत्य सेवन के कारण, हेतु और उनके कटु फल इतने मनोवैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किये गये हैं कि जिन्हें पढ़ते हुए मनुष्य का हृदय काँप उठता है और हिंसा आदि आस्रवों से स्वतः ही विरति होने लगती है। यह एक उदाहरण है। इसी प्रकार ज्ञान, कर्म, लेश्या आदि सभी विषयों पर बड़ी विस्तृत और आधारभूत सामग्री इस ग्रन्थ में प्राप्त होती है। जिसके स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है, जिन-वचनों के प्रति श्रद्धा सुदृढ़ होती है और हृदय पाप वृत्तियों से विरक्त होने लगता है। ___ इसी के साथ यह सामग्री जैनदर्शन के अभ्यासी विद्वानों तथा दर्शन एवं विज्ञान के अनुसंधाताओं के लिए भी बड़ी सहायक और मार्गदर्शक सिद्ध होगी। जैनदर्शन की पुद्गल, जीव, गति, कर्म, लेश्या, योग सम्वन्धी धारणाएँ आज विज्ञान के लिए अध्ययन का अभिनव विषय बना हुआ है। हजारों वर्ष पूर्व वर्णित वे तथ्य सत्य आज विज्ञान की कसौटी पर खरे उतर रहे हैं और साथ ही वैज्ञानिकों को इस दिशा में अनुसंधान करने के लिए आधार-भूमि तैयार करते हैं। एक मार्गदर्शक संकेत और रूपरेखा भी प्रस्तुत करते हैं। इससे ज्ञान-विज्ञान के नये-नये क्षितिज खुलने की सम्भावना प्रवल होती है। मेरा यह विश्वास है कि आने वाले युग का वैज्ञानिक और अनुसंधाता जब तक जैन दर्शन व जैन आगमों का अध्ययन नहीं करेगा उसकी वैज्ञानिक प्रगति अपूर्ण व उसके अनेक प्रश्न अनुत्तरित व उलझे हुए ही रहेंगे। विज्ञान जिन प्रश्नों का आज उत्तर नहीं पा रहा है, जिनके समाधान में विज्ञान असमंजस की स्थिति में है, उन प्रश्नों का, उन पहेलियों का समाधान जैन आगमों के गहरे अनुशीलन से खोजा जा सकता है और इस दिशा में द्रव्यानुयोग का यह महान् संग्रह विशेष सहायक बनेगा, ऐसा मेरा अभिमत है। उपाध्यायधी की भावना थी कि मैं इस ग्रन्थ पर विस्तृत प्रस्तावना लिखू, मेरी भी अन्तर्इच्छा थी कि इस प्रकार के महाग्रन्थ पर एक विस्तृत प्रस्तावना लिखी जाय। अपने अध्ययन, अनुशीलन का सार पाठकों के सामने प्रस्तुत करूँ। परन्तु पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों के निरन्तर विहार. प्रतिदिन सैकडों. हजारों दर्शनार्थियों का आवागमन, सम्पर्क तथा साध जीवन की आवश्यक चर्या के कारण मझे अब तक अवकाश ही नहीं मिल सका और प्रस्तावना विलम्बित होती गई। अस्तु ! अव तृतीयं भाग भी सम्पन्न हो रहा है। इसलिए मैंने संक्षेप में ही अपना विचार प्राथमिक वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। ____ में प्रबुद्ध पाटकों से अनुरोध करता हूँ कि वे प्रस्तुत ग्रन्थरत्न पर लिखी हुई डॉ. सागरमल जी जैन और डॉ. धर्मचन्द जी जैन की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना का गहराई से अनुशीलन करें जिससे ग्रन्थ के गुरु गम्भीर रहम्य सहज में समझ में आ सकेंगे क्योंकि दोनों ही प्रस्तावना वड़ी महत्त्वपूर्ण. अनुशीलनात्मक हैं। मैं पुनः अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त करता हूँ कि उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. 'कमल' का यह ५) वर्ष का दृढ़ अध्यवसाय युक्त अविस्मरणीय श्रम जैन वाङ्मय को यशस्विता प्रदान करेगा और शताब्दियों तक अपना महत्त्व बनाये रखेगा। इसी शुभाशा के माथ। ..

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