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विचारशक्ति भी कुन्द हो रही है। नई सोच को जंग-सा लग गया है। क्या हुआ, किसी क्षेत्र में अंगुलियों पर गिने जाने योग्य नाम सामने आ जाएं। अंधेरे इतने सघन हैं कि उनसे लड़ने के लिए सितारे पर्याप्त नहीं होंगे। वे सितारे स्वयं गर्दिश में हों तो प्रकाश की आशा ही कैसे जगेगी?
कुछ लोग समय की प्रतीक्षा करते हैं। अनुकूल समय आएगा, तब काम करेंगे। यह भी एक प्रकार का बहाना है। जिनको काम करना है, वे किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। बहत बार ऐसे लोग प्रारंभ में अकेले पड़ जाते हैं। उनका उपहास होता है, उपेक्षा होती है और उनके मार्ग में बाधाएं खड़ी की जाती हैं। आचार्य भिक्षु के साथ यही हुआ था। पर वे रुके नहीं, थके नहीं, चलते रहे। पथ प्रशस्त हुआ। कुछ लोगों ने सहयोग का हाथ बढ़ाया। उनकी क्रान्ति सफल हो गई। यदि वे प्रारंभिक मुसीबतों के आगे घुटने टेक देते तो आचारशैथिल्य के क्षेत्र में प्रतिकार के रास्ते धुंधलके में खो जाते।
वर्तमान लोकजीवन में जो बुराइयां हैं, उनका प्रतिकार अभी नहीं होगा तो कभी नहीं होगा। महावीर और गांधी के आदर्श देश के सामने हैं। देशवासियों का दायित्व है कि वे अपने भीतर झांकें और देखें कि उनके जीवन में वे आदर्श हैं क्या? जिसके जीवन में उन आदर्शों की सुगबुगाहट भी नहीं है, वे क्यों अपेक्षा करें कि दूसरे लोग उदाहरण बनें। यह परस्मैपद की सोच आत्मनेपद में बदलेगी, तभी बुराई के प्रतिकार का स्वर मुखर हो पाएगा। अणुव्रत आत्मसुधार या व्यक्तिसुधार का आन्दोलन है। इसी दर्शन के आधार पर मानव समाज विसंगतियों को मिटाने में सक्षम हो सकेगा।
८८ : दीये से दीया जले
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