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होती है तो वह उसी के लिए अहितकर होती है। किन्तु जो संगठन या दल राष्ट्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है, पूरे राष्ट्र का दायित्व संभालने वाला होता है, उसके भीतर यदि रचनात्मक सोच की कमी आती है, पारस्परिक वैमनस्य का बीजवपन होता है, एक-दूसरे पर छींटाकशी होती है, तो उससे पूरे राष्ट्र की चेतना प्रभावित होती है। उसका नुकसान पूरे राष्ट्र को झेलना पड़ता है। कोई संगठन हो, उसमें विभिन्न रुचियों वाले व्यक्ति होते हैं। रुचिभेद विचारभेद को जन्म देता है। यहां तक स्थिति उलझती नहीं । जब विचारभेद मनोभेद का सर्जक बन जाता है और आपसी उठापटक का क्रम प्रारम्भ हो जाता है, वहां अहित की संभावना को टाला नहीं जा सकता। व्यक्तिगत स्वार्थ को साधने का मनोभाव और स्वार्थ न सधने पर निम्न स्तर के विरोध का उद्भाव-ये दोनों ही स्थितियां राष्ट्रीय हितों पर प्रहार करने वाली हैं।
राष्ट्र के सामने अनेक समस्याएं रहती हैं। उनके समाधान का दायित्व राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक-सभी संगठनों पर है । सत्तारूढ़ दल इस दायित्व से दोहरा प्रतिबद्ध होता है। वह अपनी अन्तरंग स्थिति से ही नहीं निपट पाया तो राष्ट्र को कैसे संभालेगा? जहां तक एक ही व्यक्ति अपने दल का नेता हो और राष्ट्र का भी नेता हो, वहां उस पर कितना बोझ रहता है; कल्पना की जा सकती है। जहां दल और राष्ट्र का नेता अलग-अलग हो, वहां भी कठिनाई कम नहीं रहती। नीति-भेद के कारण किसी योजना को अमलीजामा पहनाने से पहले ही वह फेल हो जाता है। ऐसी स्थिति में सत्तारूढ़ दल के लोगों का नैतिक दायित्व है कि वे व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दल के हितों का विघटन न करें और दलीय स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय हितों को विघटित न होने दें। अणुव्रत के मंच से उनको सही दिशा उपलबध हो सकती है, बशर्ते वे राष्ट्रहित को प्रमुख मान सब प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर एकता के अश्व की लगाम थामकर चलने का संकल्प लें।
६४ : दीये से दीया जले
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