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को स्थान मिल गया।
जिज्ञासा-तामसिक वृत्तियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आपका क्या अभिमत है?
समाधान-प्राचीनकाल में मनोरंजन और चिन्ता-मुक्ति के सबसे बड़े साधन थे भक्ति और समर्पण। भक्ति-रस में आकंठ निमग्न व्यक्ति इतना तन्मय होता है कि सारी समस्याओं की विस्मृति हो जाती है। समर्पण के दो रूप हैं-अपने उपास्य के प्रति और प्रकृति के प्रति। जो व्यक्ति समर्पित होना जानता है, वह चिन्ताओं के भार से आक्रान्त नहीं होता, स्वयं को बोझिल नहीं बनाता।
मद्यपान के द्वारा भी एक बार चिन्ताओं की विस्मृति होती है, पर उसके साथ वास्तविकता की भी विस्मृति हो जाती है और व्यक्ति गलत कार्य में प्रवृत्त होता है। भक्ति और समर्पण में वास्तविकता सामने रहती है। जिस व्यक्ति का चिंतन सार्वभौम सत्य की धाराओं पर केन्द्रित रहता है, उसका समर्पण ही उसे आनन्दानुभूति दे सकता है।
- वर्तमान में जो व्यक्ति आदिवासी मनुष्य जैसा जीवन जीता है, जो सामाजिक सम्पर्क में नहीं आया है, वह भक्ति और समर्पण से अपने जीवन को आनन्द से आप्लावित रखता है। किन्तु वही व्यक्ति जब समाज के संपर्क में आता है, अपनी वृत्तियों को रूढ़ि और अन्धविश्वास के साथ जोड़ता है, सात्विकता के प्रति उसकी आस्था कम हो जाती है। सात्विकता का ह्रास और चिंताओं का विकास उसे मादक पदार्थों के निकट ले जाता है, फलतः तामसिकता बढ़ने लगती है। तामसिकता की वृद्धि से हिंसा, तोड़-फोड़, प्रमाद, कर्तव्य-पालन में आलस्य आदि दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है। अतः श्रमिक-वर्ग के लिए व्यसनमुक्ति अत्यन्त आवश्यक तत्त्व है।
जिज्ञासा-उन सात्विक साधनों की चर्चा आप करें, जो भारतीय परम्परा में स्वीकृत थे।
समाधान-श्रमिक का सही रूप है उसकी निष्ठा और जागरूकता। जिस व्यक्ति की कर्त्तव्य-पालन में निष्ठा है, वह प्रमाद, अन्याय या मुफ्तखोरी जैसा कोई काम नहीं कर सकता। कर्त्तव्य -भावना की कमी का एक कारण राष्ट्रीय प्रेम की न्यूनता भी है। अपने राष्ट्र के प्रति उदात्त प्रेम होगा तो
१५८ : दीये से दीया जले
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