Book Title: Diye se Diya Jale
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 185
________________ ३. जन धर्म अनेकान्तवादी है। उसने प्रत्येक धर्म और व्यक्ति के विचारों में सत्य को खोजने की दृष्टि दी है। ४. जैनधर्म समन्वयवादी है। उसने विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों में सापेक्ष दृष्टि से समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है। उसका पलित है-विरोधी विचारों, सामाजिक और राजनीतिक प्रणालियों में सहअस्तित्व। ५. जैनधर्म ने विश्व-मैत्री और विश्व-शांति के लिए अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त का विकास किया। उसमें स्वस्थ समाज के निर्माण की क्षमता है। जातिवाद, साम्प्रदायिक अभिनिवेश, मिथ्याग्रह, निरपेक्ष दृष्टि और सहअस्तित्व विरोधी अवधारणा-ये धर्म को संकुचित बनाते हैं। जैनधर्म इन अवधारणाओं से परे रहा है। उसमें विश्व धर्म बनने की क्षमता है। किन्तु उसका सम्यक् प्रचार नहीं हो सका, उसके सिद्धान्त जन-जन तक नहीं पहुंचाए जा सके, इसलिए वह विश्वव्यापी अथवा विश्व धर्म नहीं बन सका। यदि जैन धर्म के सिद्धान्त सही रूप में जनता तक पहुंच सकें तो उनकी व्यापकता में सन्देह नहीं किया जा सकता। जिज्ञासा-एक समय में जैन धर्म का प्रभुत्व जनसाधारण से लेकर राजा-महाराजाओं तक था। आज वह एक वर्ग-विशेष में ही सिमटकर क्यों रह गया है? समाधान-धर्म के प्रणेता और नेता जितने प्रभावशाली होते हैं, धर्म का प्रभाव उतना ही अधिक बढ़ता है। उनके साथ कुछ तान्त्रिक और मान्त्रिक शक्तियों का भी महत्त्व होता है। प्राचीन काल में कुछ प्रभावशाली आचार्यों ने चामत्कारिक शक्तियों का उपयोग कर राजाओं पर प्रभाव छोड़ा। एक राजा जैन बना तो उसके साथ लाखों लोग अनायास ही जैन बन गए। राजाओं का युग समाप्त हुआ। नेतृत्व का प्रभाव क्षीण हुआ। वैसी स्थिति में किसी व्यक्ति विशेष के नाम से धार्मिकता का प्रवाह बनने की प्रक्रिया में अवरोध आ गया। उस समय जैन लोगों के पास, विशेष रूप से दाक्षिणात्य जैनों के पास जिज्ञासा : समाधान : १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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