________________
६४. विकास का अन्तिम शिखर
मनुष्य विकास की अभिलाषा रखता है । विकास के लिए वह नई-नई खोजें करता है । विज्ञान के क्षेत्र में हुई खोजों के आधार पर वह विकास के नए-नए शिखरों पर आरोहण कर रहा है। जलमार्ग, स्थलमार्ग और आकाशमार्ग पर उसकी अबाध गति विकास का एक पैमाना है । विकासयात्रा के एक पड़ाव पर वह विश्व के किसी भी भाग में घटित होने वाली घटना के बारे में उसी समय पूरी जानकारी पा सकता है। उस घटना के श्रव्य भाग को सुन सकता है और दृश्य भाग को देख सकता है। इस प्रक्रिया में वह किसी लिखित संवाद को भी एक क्षण में लाखों किलोमीटर दूर भेज सकता है I अणु और विद्युत् की ऊर्जा के बल पर मनुष्य आज ऐसे कार्य कर रहा है, जिनकी उसके पूर्वजों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी ।
I
मनुष्य के मन में विकास की जो अवधारणा है, उसके परिप्रेक्ष्य में वह इसी कोटि के काम कर सकता है, जिनके बारे में संक्षिप्त-सी सूचना दी गई है । विकास के इस रूप को नेपथ्य में ले जाना मुझे अभीष्ट नहीं है । पर मैं आगाह करना चाहता हूं कि विकास का अंतिम शिखर इस मार्ग पर नहीं है । विश्व के वैज्ञानिक जिस रास्ते पर चल रहे हैं, हजारों वर्ष की साधना के बाद भी उस शिखर पर नहीं पहुंच पाएंगे। पहुंचना तो बहुत दूर की बात है, उसे छूना या देखना भी संभव नहीं है । ऐसी स्थिति में उस मार्ग को खोजना बहुत आवश्यक है, जहां से विकास के अंतिम शिखर को देखा जा सके।
I
आप्त पुरुषों ने मोक्ष या निर्वाण को विकास का ऐसा पड़ाव माना है, जहां पहुंचने के बाद सारे रास्ते खो जाते हैं। उससे आगे कोई मंजिल नहीं है, फिर रास्ते कहां होंगे । आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने वाले सभी दर्शन मोक्ष की सत्ता को मान्य करते हैं । मोक्ष का एक ही रास्ता है । वह
१४० : दीये से दीया जले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org