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विरोधी बात को भी इस दृष्टि से स्वीकार किया जा सकता है कि हर व्यक्ति को स्वतन्त्र चिन्तन का अधिकार है। किसी विरोधी तथ्य का अस्वीकार भी हो सकता है, पर उसके प्रति असहिष्णुता से व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्रता का हनन हो जाता है ।
सहिष्णुता की भी अपनी मर्यादा है। सामने वाला व्यक्ति या समाज एक व्यक्ति के सिद्धान्त या विचारों पर सीधा आक्रमण करता है, उसे सहना बहुत कठिन है । व्यक्ति की अपनी मान्यता कुछ भी हो सकती है, पर दूसरों की मान्यता के प्रति कीचड़ उछालना असहिष्णुता है ।
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असहिष्णुता की यह मनोवृत्ति धार्मिकों में अधिक होती है । राजनीति या समाजनीति में यह क्रम नहीं है, ऐसी बात नहीं । किन्तु वहां असहिष्णु होना आश्चर्य नहीं है। धर्म के प्रतिनिधि सहिष्णुता को आदर्श मानकर चलते हैं, इसलिए उनकी असहिष्णुता असह्य हो जाती है। असहिष्णुता की निष्पत्ति आती है तोड़फोड़, मार-काट और विरोधी विचारों वाले व्यक्तियों को समाप्त करने की भावना । क्या धर्म मनुष्य को यह सब सिखा सकता है ? धर्म मनुष्य को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाता है। सहिष्णुता का विकास होने से ही सम्प्रदायवाद का अन्त हो सकेगा ।
जिज्ञासा - सहिष्णुता और असहिष्णुता की निष्पत्तियां क्या हैं?
समाधान-सहिष्णु समाज स्वतन्त्रता- प्रिय और उदारता-प्रधान होगा और उसमें दूसरों को खपाने की योग्यता होगी। जो समाज दूसरों को खपा सकता है, वह समर्थ और व्यापक बन सकता है। संस्कृति, जाति, भाषा, प्रान्त आदि की भिन्नता होने पर भी परस्पर सौहार्द से रहने वाला समाज कभी विघटित नहीं होता। विभिन्न वर्गों में विभाजित शक्ति भी एक अखण्ड मानव-समाज के हितों में अपना अमूल्य योग दे सकती है। अखण्डता की अनुभूति उस समाज की व्यापकता की प्रतीक है ।
असहिष्णुता से पृथक्करण की मनोवृत्ति को बल मिलता है । हिन्दुस्तान में इस वृत्ति ने जातीय संघर्ष के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी, जाति के नाम पर लड़ाइयां लड़ी गयीं और एक अविभाजित मानवजाति विघटित हो गयी । असहिष्णुता की निष्पत्ति कभी अच्छी हो नहीं सकती। इससे व्यक्ति के मिथ्या अभिनिवेश का पोषण हो सकता है, अन्त नहीं । मिथ्या अभिनिवेश सामाजिक,
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जिज्ञासा : समाधान : १४८
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