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६६. जिज्ञासा : समाधान
जिज्ञासा - आज राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अणुव्रत मानव धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा है। उसकी यह प्रतिष्ठा वैचारिक स्तर पर अधिक है । क्या उसे व्यावहारिक रूप में प्रतिष्ठित करने की भी कोई योजना है?
सामधान - कोई भी आंदोलन वैचारिक रूप में सक्षम होने के बाद ही व्यवहार में उतरता है । आचार - शास्त्र के मीमांसकों ने इस तथ्य पर बल दिया है कि आचार व्यवहार में आने से पहले विचारों की धरती पर अंकुरित हो । वैचारिक पृष्ठभूमि के बिना आचार के पथ पर बढ़े हुए व्यक्ति कभी भी फिसल सकते हैं । वैचारिक धरातल ठोस हो जा जाए तो फिसलन की संभावनाएं कम हो जाती हैं । इस दृष्टि से किसी भी कार्यक्रम को लागू करने से पहले वैचारिक क्रान्ति की अपेक्षा रहती है । विचार पक्ष सही होता है तो किसी भी उपयुक्त समय में उसे प्रायोगिक बनाया जा सकता है।
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यह सच है कि अणुव्रत का विचार पक्ष बहुत पुष्ट और व्यापक बना है । इसी कारण अणुव्रत आन्दोलन जीवित है। इसके समकक्ष और समकालीन व्यवहार शुद्धि, सर्वोदय, मोरल रिआर्मामेंट आदि आन्दोलनों की आज कहीं कोई चर्चा भी नहीं है, जबकि अणुव्रत के स्वर अब तक बुलन्दी पर हैं । यह चिन्तन भी उचित है कि अब इसे व्यवहार के सांचे में ढालना चाहिए । किन्तु किसी भी विचार को व्यवहार में ढालना कितना कठिन है, इस बात को सब जाते हैं । कोई विचार शत प्रतिशत व्यावहारिक बन जाए, यह संभव भी नहीं है । पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि विचार आकाशीय उड़ान भरें और आचार पाताल में ही दबा रह जाए ।
तीर्थंकरों ने अहिंसा का दर्शन दिया । बहुत दृढ़ता और स्पष्टता से अहिंसा के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। फिर भी हिंसा का अस्तित्व ज्यों
१४४ : दीये से दीया जले
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