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५०. संस्कृति तब और अब की
एक समय था, जब बच्चों को नींद से जगाने के लिए प्रभाती गाई जाती थी। इस युग की मां बच्चे को जगाने के लिए कहती है-गेट अप, हरि अप, बाथ टाइम, स्कूल टाइम आदि। मंत्र जाप और भगवत् स्मरण की प्रेरणाएं लुप्त होती जा रही हैं। पूज्यजनों और गुरुजनों के सामने हाथ जोड़ने और उनके चरणों में झुककर प्रणाम करने की परम्परा समय की परतों के नीचे दब रही है। हाथ मिलाना, टा-टा, वाय-वाय की संस्कृति पनप रही है। ऐसा करने वाले लोग अपने आपको आधुनिक मानते हैं। ऐसे लोगों में नवीनता का बढ़ता हुआ व्यामोह एक घुन है, जो धीरे-धीरे देश की सांस्कृतिक विरासत को खोखला कर रहा है।
प्राचीनता और नवीनता के बीच चल रहा संघर्ष नया नहीं है। पर यह स्थिति सुखद नहीं है। कोई भी परम्परा या वस्तु प्राचीन होने के कारण अप्रयोजनीय बन जाए, यह यौक्तिक बात नहीं है। नवीन होने के कारण हर परम्परा और वस्तु ग्राह्य है, यह चिन्तन बद्धिमत्तापूर्ण नहीं लगता। हमारे बारे में कहा जाता है कि हम नवीनता के पृष्ठपोषक हैं। किसी दृष्टि से यह बात ठीक भी है। किन्तु जिन प्राचीन परम्पराओं की उपयोगिता है, जो प्राचीन वस्तुएं काम की हैं, उनकी उपेक्षा को हमने कभी उचित नहीं समझा। हम कभी नहीं चाहते कि प्राचीन उपयोगी तत्त्वों के स्थान पर नई बातों को प्रतिष्ठित किया जाए।
विनय और अनुशासन भारतीय विद्या के मूल तत्त्व हैं। अध्यात्म विद्या इनके बिना आगे चलती ही नहीं। हमारे शास्त्र इन तत्त्वों से भरे पड़े हैं। शास्त्रों के सत्य जब तक जीवन से नहीं जुड़ते, उपयोगी नहीं बन सकते। लगता ऐसा है कि इन्हें जीवन से जोड़ने के स्थान पर जीवन से पोंछा जा
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