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४८. संन्यास परम्परा और ज्ञान की धारा
भारतीय संस्कृति में संन्यास की परम्परा बहुत गरिमापूर्ण रही है। इसे जीवन के उदात्तीकरण की प्रक्रिया माना गया है। साधारण-से-साधारण और महान्-से-महान् सभी व्यक्तियों के लिए संन्यास का रास्ता मुक्त रखा गया है। आश्रम व्यवस्था के अनुसार इसे जीवन का एक अपरिहार्य हिस्सा माना गया है। जैन परंपरा में संन्यास के लिए जीवन के सान्ध्यकाल तक प्रतीक्षा करने का विधान नहीं है। उपनिषद कहते हैं कि जिस दिन विरक्ति हो, उसी दिन प्रव्रज्या के पथ पर अग्रसर हो जाना चाहिए। बौद्धधर्म मानता है कि कुछ समय के लिए ही सही, जीवन में एक बार संन्यास लेना आवश्यक है।
जैनधर्म में संन्यास की कल्पना अन्य परम्पराओं से बहुत भिन्न है। व्यक्ति संसार में रहे, पर संसार उसके मन में न रहे, यह संन्यास की एक परिभाषा है। घर, परिवार और परिग्रह का त्याग कर एक अकिंचन मुनि का जीवन जीना भी संन्यास है। इस परिभाषा के अनुसार मुनि अत्यन्त सीमित साधनों से जीवनयापन करता है और अपना पूरा जीवन धर्म, अध्यात्म या मानवता की सेवा में समर्पित करके रहता है। ऐसे व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र के गौरव होते हैं और सब प्रकार से निश्चिन्त होकर विकास की नई खिड़कियां खोलते हैं।
संसार में जितने विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं, उनमें संन्यासियों की एक लम्बी सूची है। ज्ञान के अपूर्व स्रोत खोलने वाले संन्यासी ही हुए हैं। वेदव्यास हों चाहे उमास्वाति, जिनभद्र हों या हरिभद्र। इस श्रेणी से अनेक व्यक्तित्व जुड़े हुए हैं। उनके द्वारा बहाई गई ज्ञानधारा में हम आज भी अभिष्णात हो रहे हैं। ज्ञान और चरित्र की उज्ज्वल आभा को देख इस दिशा में आकर्षण होना स्वाभाविक है। किन्तु ऐसा लगता है कि प्रवाह उलटा बह रहा है। युवा
१०२ : दीये से दीया जले
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