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४४. संघर्ष की दिशाएं
यह जगत् द्वन्द्वात्मक है। इसमें चेतन और अचेतन दो तत्त्व हैं। चेतन तब तक ही संसार में रहता है, जब तक वह अचेतन से सम्बद्ध रहता है। अचेतन से सम्बन्ध छूटते ही चेतन द्वन्द्वमुक्त हो जाता है, अपने स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है। द्वन्द्वमुक्त चेतना साधक का लक्ष्य होता है। हर व्यक्ति साधनाशील नहीं होता। इसीलिए चेतना को द्वन्द्वमुक्त बनाने की दिशाएं सहज रूप में उद्घाटित नहीं हो पातीं।। . मनुष्य का जीवन भी द्वन्द्वात्मक होता है। द्वन्द्व के दो रूप होते हैं-चिन्तनगत और व्यवहारगत। द्वन्द्व की उद्भवभूमि मनुष्य का मन है। मन में द्वन्द्व होता है तभी वह व्यवहार में उतरता है। मन निर्द्वन्द्व हो तो व्यवहार के धरातल पर उसके पदचिह्न अंकित नहीं होते। किन्तु बहुत कठिन है मन को द्वन्द्वातीत बनाना । अकेला व्यक्ति भी अनेक प्रकार के द्वन्द्वों से घिर जाता है, फिर समूह की तो बात ही क्या? परिवार, समाज, संस्था, दल
और वर्ग से बंधे हुए व्यक्ति अनेक प्रकार के द्वन्द्वों को निमन्त्रण देते हैं और उनकी मार से आहत होकर व्यथा का भार ढोते हैं।
द्वन्द्व का अर्थ है संघर्ष। उसके दो रूप हैं-अन्तरंग और बहिरंग। बहिरंग संघर्ष को सहना इतना कठिन नहीं है। उसे सहा जा सकता है और खुले रूप में उसका मुकाबला भी किया जा सकता है। अन्तरंग संघर्ष को झेलना अधिक कठिन होता है। अंतरंग संघर्ष स्थिति को इतना जटिल बना देता है कि उसके समाधान का सूत्र ही हाथ से फिसल जाता है। कभी-कभी वह रेशम की गांठ बन जाता है। उससे खोलने के लिए जितना प्रयत्न होता है, वह उतनी ही उलझती चली जाती है। ..
किसी संगठन या दल में अन्तरंग संघर्ष या विरोध की स्थिति उत्पन्न
संघर्ष की दिशाएं : ६३
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