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(४०) कवल कम खाना अथवा वस्त्र, पात्रादि उप
करण अल्प रखना २, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ--खाने, पीने और भोगोपभोग
की वस्तुएँ अल्प रखना ३, घी, दूध दही आदि विगयों का त्याग करना और उनके
उपर आसक्ति नहीं रखना ४, कायकिलेसो संलीणया-केशलुंचन आदि कायक्लेश को
सहन करना ५ और इन्द्रियों के विषयविकारों को, शारीरिक अंगोपाङ्गो को और
उनकी कुचेष्टाओं को रोकना ६, य बज्झो तवो होइ।यह छः प्रकार का बाह्यतप समझना
चाहिये ॥६॥ पायच्छित्तं विणओ-किए हुए दोषों को गुरुदेव के सामने
प्रकट करके उनकी आलोयणा लेना १, गुरुदेवादि पूज्यों, ज्ञानियों और शास्त्रों की आशा
तना न कर विनय एवं आदर सन्मान करना २, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ-गुरु, वृद्ध और ग्लान आदि
की आहार, पानी, औषध आदि से सेवाभक्ति करना ३, तथा वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा रूप स्वाध्याय ( शास्त्राभ्यास) करना ४,
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