Book Title: Devasia Raia Padikkamana Suttam
Author(s): Jayantvijay
Publisher: Akhil Bharatiya Rajendra Jain Navyuvak Parishad

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Page 184
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६५ ) भी नहीं चाहिये । क्या ' दुष्टग्रहभूतपिशाचशाकिनीनां प्रमथनाय यह दुष्ट भावना प्रतिक्रमण में लाभकारक हो सकती है ? नहीं, नहीं, कदापि नहीं । " “ प्रश्न- वंदित्सूत्र में सम्मद्दिद्विदेवा, दिंतु समाहिं च बोहिं च ' पद कहना उचित है या नहीं ? | उत्तर - कतिपय प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में वंदितसूत्र ४३ गाथा का उपलब्ध होता है । ४३ वीं गाथा में समाप्तिसूचक ' वंदामि जिणे चउव्वीस ' यह अन्त्य मंगल भी है । इससे जान पडता है कि पहले वंदित्तसूत्र ४३ गाथात्मक ही था। बाद में उसमें सात गाथा अधिक प्रक्षेप कर दी गई हैं । और उसकी सिद्धि के लिये वंदित्तुसूत्र पर संस्कृतटीका आदि रच दिये गये हैं । प्रक्षिप्त सात गाथाओं में पौनी सात गाथा तो जुदेजुदे ग्रन्थों में मिलती हैं । परन्तु ४७वीं गाथा का तृतीय पद ' सम्मद्दिद्विदेवा' किसी सूत्र में नहीं मिलता। इससे जान पडता है कि 'सम्मदिद्विदेवा ' यह पद किसी देवोपासकने नया बना कर रक्खा है । अगर ऐसा नहीं होता तो पौने सात गाथा के समान सूत्रों में ' सम्मदिट्ठिदेवा ' पद भी उपलब्ध होता । वस्तुतः कर्ममुक्त होने के लिये समाधि, बोधि देने में अरिहंत, सिद्ध, श्रुत, और साधु ये चारों समर्थ हैं। इनके आलम्बन से ही प्रत्येक आत्मा कर्ममुक्त हो सकता है देव-देवी विषय निरत होने से स्वयं For Private And Personal Use Only

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