Book Title: Devasia Raia Padikkamana Suttam
Author(s): Jayantvijay
Publisher: Akhil Bharatiya Rajendra Jain Navyuvak Parishad

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Page 185
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१६६) कर्गमुक्त हो सकते हैं और न दूसरों को कर्ममुक्त कर सकते हैं। अत एव वंदित्तु में 'सम्मदिद्विदेवा' पद कहना उचित नहीं है । उसके स्थान पर ‘सम्मत्तस्स य सुदि' यही पद कहना अच्छा है, क्योंकि यह पद संगत और निर्दोष भी है। प्रश्न-कायोत्सर्गावश्यक के अन्त में श्रुत-क्षेत्रदेव के कायोत्सर्ग एवं स्तुति कहना या नहीं। उत्तर-पतिक्रमण की सूत्रोक्त विधियों में श्रुत क्षेत्रदेव के कायोत्सर्ग के अन्त में स्तुति कहना नहीं कहा और षडावश्यक के बीच ये हैं भी अनावश्यक । इसलिये श्रुतदेव और क्षेत्रदेव के कायोत्सर्गान्त में स्तुति नहीं करना चाहिये । लघुशान्ति के समान प्रतिक्रमण में ये भी गतानुगतिक से चल पड़ी है, अतः इनको सर्वथा अकरणीय समझना चाहिये । देवोपासक पल्लवग्राही लोगोंने अपना पकडा हुआ ढांचा सिद्ध करने के लिये प्रतिक्रमणविधियों में पीछे से यह घालमेल की है जो मानने लायक नहीं है। सूत्रकार आचार्य भगवन्तोंने पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अन्त में 'दुक्खक्खय-कम्मक्खय' के कायोत्सर्ग करने बाद भुवनदेव, क्षेत्रदेव के कायोत्सर्ग करने की आज्ञा दी है, वह साधु साध्वियों के लिये है, श्रावकों के लिये नहीं । साधु-साध्वियों को विहार के दरमियान विश्रामस्थान और स्थंडिलभूमि के लिये : अणुजाणह जस्सग्गो' वाक्य बोल कर भुवन या क्षेत्रदेव की आज्ञा लेना चाहिये । उक्त आज्ञा लेने में यदि भूल हो गई For Private And Personal Use Only

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