Book Title: Devasia Raia Padikkamana Suttam
Author(s): Jayantvijay
Publisher: Akhil Bharatiya Rajendra Jain Navyuvak Parishad

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Page 183
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya (१६४ ) में लघुशान्ति नहीं कही जाती थी। लेकिन उदयपुर के चोमासी ( स्थाई रहनेवाले ) यतिजी के कहने से यह प्रतिक्रमण में प्रविष्ट हुई और वह भी उनके उकता जाने पर । अमुविहित यति की प्रचलित मथा माननीय नहीं हो सकती। इसी प्रकार सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरिरचित 'संतिकरं स्तोत्र' और वादिवेताल शांतिसरिरचित 'बृहच्छान्तिस्तव' भी प्रतिक्रमण में गतानुगतिक से प्रविष्ट हुए हैं। इसलिये गतानुगतिकप्रथा भी मानना उचित नहीं है। 'संतिकरं' के विषय में तो तूर्यस्तुतिक-वयोवृद्ध-विजयदानमूरिजीने स्वरचित- श्रीविविधप्रश्नोत्तर ' ग्रन्थ के द्वितीयभाग के पृष्ठ १८१-८२ में स्पष्ट लिखा है कि-" पाक्षिकादि प्रति क्रमणमां अन्ते 'संतिकरं' कहेवानो रीवाज वर्तमानमां थोडा ज वर्षोथी शरू थयेल होवाथी पाक्षिकादि प्रतिक्रमणमां ते कहेबुं प्रमाणभूत लागतुं नथी. आ ऊपरथी ते देवसी प्रतिक्रमणमां कहेवू ए तो सुतरां निराधार साबित थाय छ ।' दर असल में लघुशान्ति और संतिकरं ये स्तोत्र महामारी आदि रोगोपद्रव की शान्ति के लिये बनाये गये हैं, जो वैसे ही कारणों की उपस्थित होने पर इनका पाठ और इनसे सविधि अभिमंत्रित जलसिंचन कार्यकारी हो सकता है। प्रतिक्रमण में इनके बोलने मात्र से कुछ लाभ नहीं है।' प्रत्युत दोषापत्ति है। जिस भावना को लक्ष्य में रख कर इनका पाठ किया जाता है, वह भावना प्रतिक्रमण में होना For Private And Personal Use Only

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