________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १६२) इसलिये आगम और प्रामाणिक सुविहिताचार्यों के मन्तव्य से तीन स्तुति ही प्राचीन है, चार नहीं ।
तुर्यगाचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजीने भी स्वरचित 'गच्छमतप्रबन्ध अने संघप्रगति' पुस्तक के पृष्ठ १६९ में लिखा है कि “विद्याधरगच्छना श्रीमान हरिभद्रसरि थया" ते जाते ब्राह्मण हता, तेणे जैनदीक्षा ग्रहण करी, याकिनी साध्वीना धर्मपुत्र कहेवाता हता । तेमणे १४४४ ग्रन्थो बनाव्या, श्री वीरनिर्वाण पछी १०५५ वर्षे स्वर्गे गया त्यारपछी चतु:स्तुति मत चाल्यो ।"
चौथी स्तुति में देव-देवियों से मुख और समाधि आदि कार्यों की याचना की गई है । देवदेवी स्वयं विषयकषायसंपन्न होने से मोक्षसुख और मोक्षलायक आत्मसमाधि देने में असमर्थ हैं। वास्तविक सुख समाधि तो पंचपरमेष्ठी के सच्चे आलम्बन से ही मिल सकती है। प्रतिक्रमणक्रिया भावानुष्ठान है, उसमें सांसारिक सुखसमाधि की याचना करना दोष जनक ही है, इसीसे प्रतिक्रमण में देवों की स्तुति नहीं कहना चाहिये । जो मोक्षदायक सुखसमाधि से स्वयं वंचित है, उसके पास उस सुखसमाधि की याचना करने से निराशा के सिवा और क्या फल मिल सकता है ? ।
'तीन स्तुति करने का मत श्रीराजेन्द्रसूरिजीने नया निकाला है' ऐसा जो लोग कहते या लिखते हैं वे या तो जैनागम-ग्रन्थों से अपरिचित (अनभिज्ञ) हैं, या अंगत
For Private And Personal Use Only