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(७२) विवरीअपरूवणाए अ ।--जिनागमों से विरुद्ध प्ररूपणा
करने से जो पापदोष लगता है उसको हटाने के निमित्त प्रतिक्रमणक्रिया की जाती
है ॥ ४८ ॥ खामेमि सव्वजीवे---सर्व जीवों को मैं खमाता हूँ सव्वे जीवा खमंतु मे--सर्व जीव मुझे क्षमा देवें, मित्ती मे सब्वभूएसु--समस्त जीवों के साथ मेरी
मैत्री है-सभी जीव मेरे मित्र हैं, वेरं मज्झ न केणइ ।--किसी जीव के साथ मेरा वैरभाव
(दुश्मनावट ) नहीं है ॥ ४९ ॥ एवमहं आलोइअ—इस प्रकार मैंने आलोचना करके, निदिअ गरहिअ, दुगंछिअं सम्म--आत्मसाक्षी से
निन्दा करके, गुरुसाक्षी से गर्दा करके और
पापों से घृणा करके तिविहेण पडिक्कंतो--मन, वचन, काया रूप त्रिविध
शुभयोग पूर्वक पापों से निवृत्त होता हुआ वंदामि जिणे चउव्वीसं ।--मैं चोवीसों तीर्थंकरों को वार
बार बन्दन करता हूँ ॥ ५० ॥ ३४. गुरुखामणा( अब्भुट्टिओ )सुत्तं । इच्छाकारेण संदिसह भगवं !--हे भगवन् ! आप
अपनी इच्छा से आज्ञा देवें
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